हरी खाद मृदा स्वास्थ्य का आधार डा.अरविंद कुमार
✍️जलालाबाद कन्नौज से संवाददाता मतीउल्लाह
कन्नौज। मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग अति प्राचीन काल से चला आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नगदी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चय ही कमी आई। लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट उर्वरक के मूल्य में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक स्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज भी खाद का महत्व और भी बढ़ गया है। दलहनी एव गैर दलहनी फसलों को उनके वानस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी में अपघटन के लिए दबाना ही हरी खाद देना है । भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव रहा है। यह फसलें अपने जड ग्रंथियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण में नाइट्रोजन का दोहन कर मिट्टी में स्थिर करती है । आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है। उसे आगामी फसल द्वारा उपयोग में लाई जाती है। इसके अतिरिक्त दलहनी फसलें अपने विशेष गुणों जैसे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने , प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में विशेष स्थान रखती है । हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई .ढेचा .उर्द मूंग अरहर चना मसूर मटर लोबिया खेसारी तथा कुलथी मुख्य है । लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई.ढेचा उर्द एवं मूंग का प्रयोग ही प्रचलित है । ढेचा की फसल को 40 से 45 दिन के बाद खेत में पलटने से लगभग 200 से 250 कुंतल प्रति हेक्टेयर कार्बनिक अवशेष खेत में मिल जाता है। जिससे लगभग प्रति हेक्टेयर 80 से 125 किलोग्राम नत्रजन फसल को प्राप्त हो जाती है । अधिकतम हरा पदार्थ प्राप्त करने के लिए फसलों की पलटाई या जुताई बुवाई के 6 से 8 सप्ताह बाद कर देनी चाहिए।