प्रभारी संपादक उत्तराखंड
साग़र मलिक
उत्तराखंड के जिला अल्मोड़ा के रानीखेत से कुछ दूर पागसा गाँव में स्थित यह तीन मंजिला पारम्परिक मकान जिसकी सुन्दरता देखते ही बनती है। पहाड़ में परंपरागत बने मकानों में स्थानीय रूप से उपलब्ध पत्थर, मिट्टी, लकड़ी का प्रयोग होता रहा। पत्थर से बना मकान जिस पर मिट्टी के बने गारे से पत्थर की चिनाई की जाती थी।
स्थानीय रूप से उपलब्ध मजबूत लकड़ी से दरवाजा व छाजा तथा खिड़की बनती थी, जिसमें सुन्दर नक्काशी की जाती थी। घर की छत में मोटी गोल बल्ली या ‘बांसे’ डलते, तो धुरी में मोटा चौकोर पाल पड़ता जिसे ‘भराणा’ कहा जाता। यह चीड़ की लकड़ी का अच्छा माना जाता था। धुरी में भराणा डाल छत की दोनों ढलानों में बांसे रख इनके ऊपर बल्लियां रखी जातीं। बल्लियों के ऊपर ‘दादर’ या फाड़ी हुई लकड़ियां बिछाई जातीं या तख्ते चिरवा के लगा दिये जाते। इनके ऊपर चिकनी मिट्टी के गारे से पंक्तिवार पाथर बिछे होते। दो पाथर के जोड़ के ऊपर गारे से एक कम चौड़ा पाथर रखा जाता जिसे ‘तोप’ कहते हैं। घर के कमरों में चिकनी मिट्टी और भूसी मिला कर फर्श बिछाया जाता है। जिसे पाल भी कहा जाता है तथा इसे गोबर से लीपा जाता है। दीवारों में एक फ़ीट की ऊंचाई तक गेरू का लेपन कर बिस्वार से तीन या पांच की धारा में ‘वसुधारा’डाली जाती है। गेरू और बिस्वार से ही ऐपण पड़ते है। अलग अलग धार्मिक आयोजनों व कर्मकांडों में इनका स्वरुप भिन्न होता है। हर घर के भीतरी कक्ष में पुर्व या उत्तर दिशा के कोने में पूजा के लिए मिट्टी की वेदी बनती जो ‘द्याप्ता ठ्या’ कहलाती है। बाखली में मकान एक बराबर ऊंचाई के तथा दो मंजिला या तीन मंजिला होते थे।
पहली मंजिल में छाजे या छज्जे के आगे पत्थरों की सबेली करीब एक फुट आगे को निकली रहती जो झाप कहलाती। ऊपरी दूसरी मंजिल में दोनों तरफ ढालदार छत होती जिसे पटाल या स्लेट से छाया जाता।नीचे का भाग गोठ कहा जाता जिसमें पालतू पशु रहते तो ऊपरी मंजिल में परिवार। दो मंजिले के आगे वाले हिस्से को चाख कहते हैं जो बैठक का कमरा होता है। इसमें ‘छाज’ या छज्जा होता है। सभी घरों के आगे पटाल बिछा पटांगण(आंगन) होता है जिसके आगे करीब एक हाथ चौड़ी दीवार होती है जो बैठने के भी काम आती है।
पहाड़ की संस्कृति, रहन-सहन, भेष-भूसा, खान-पान, सामाजिक जीवन में लोकोक्तियां, मुहावरे, किस्से-कहानियां, प्रतीक तथा बिम्ब ऐसे हैं जो पहाड़ में जिये और पहाड़ को जाने बिना समझ पाना नामुमकिन है। ये बात अलग है कि समय प्रवाह में न गांव की लम्बी बाखलिया रही और न उनमें रहने वाले इन्सान। अब न वहां पाथर की छतें रही, न चाक, गोठ और मालभितेर वाले कमरे, न खोईक भिड़ और न चौथर रहे और न पटांगण(आंगन) में बनी ओखली। यदि पलायन के बाद कुछ गांव अब भी अस्तित्व में हैं तो सब धीरे-धीरे लैन्टर के बने आधुनिक सुख-सुविधा युक्त मकान बनाने लगे हैं।
पुराने घरों के खोईक भिड़(दीवार)और चौथर हमारे जीवन के सुख-दुख के गवाह हुआ करते थे। खोईक भिड़ व चौथर उन लोगों की समझ से बाहर है, जिन्होंने पहाड़ों के मकान कभी देखें ही नहीं। दरअसल पहाड़ों में ढलान पर बने घरों के आंगन को तीन ओर दीवारों से घेरा जाता है, ये दीवारें सुरक्षा की दृष्टि से तथा बैठने के उपयोग से बनाई जाती हैं। इसी को खोई अर्थात खोली बोला जाता है।
गांव के घरों में भरी दुपहरी में खुबानी अथवा पुलम के पेड़ की छांव में खोई भिड़ में बैठे बड़बाज्यू (दादाजी) चिलम गुड़गुड़ाते अथवा चाय की चुस्कियां लेते चारों ओर नजर दौड़ाकर पूरे गांव की खबर ले लिया करते। लम्बी बाखलियों के खोईक भिड़ की बात करें तो वे एक तरह से एक लघु सामुदायिक केन्द्र हुआ करते थे। तब गांव तक समाचार पत्रों की पहुंच तो नही थी। दिन भर के जीतोड़ मेहनत के बाद शाम को आराम के कुछ पलों में पुरूष तथा महिलाओं की अलग-अलग बैठकें दिन भर के घटनाक्रम के आदान-प्रदान के साथ गांव, समाज और देश तक की चर्चाओं का केन्द्र होते थे।
वर्तमान दौर में पहाडों के आधुनिक मकानों में वह रौनक नहीं रही जो हमारे पारम्परिक मकानों में हुआ करती थी और न ही पहाड़ों के खेत-खलिहानों की रौनक रही। थोड़ा होश संभाला तो पढ़ाई अथवा काम की तलाश में दूसरे शहरों को भाग गये, फिर वहीं शहर उन्हें रास आ गये, अगर लौटकर आये भी तो साथ में शहरी संस्कृति को लेकर ,जहां उनके ड्राइंग रूम तक ही उनकी दुनियां सीमित रह गयी। दुर्भाग्यवश कोई गांव में ही अटके रह गये, वे भी तथाकथित सभ्यता का लबादा ओढ़कर मॉर्डन बनने की दौड़ में तथाकथित मॉर्डन तो नहीं हो पाये, लेकिन अपने ठेठ पहाड़ी एवं गंवई अन्दाज को भी खो बैठे। गर्मियों के दिनों में चांदनी रातों की गपशपें हो अथवा जाड़ों में सामुहिक रूप से आग तापने का उपक्रम हो, ये खोईक भिड़ सदा गुलजार रहते थे। परन्तु एकाकीपन से दूर सामुहिकता व परस्पर सहयोग का आभास कराते ये खोईक भिड़ अब विलुप्ति के कगार पर हैं जो पुराने घरों में खोईक भिड़ मौजूद भी हैं वे उनको गुलजार करने वाले इन्सानों के अभाव में निर्जीव बन अन्तिम सांसे गिन रहे हैं।