प्रभारी संपादक उत्तराखंड
साग़र मलिक
देहरादून: मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिये उपचुनाव के दरवाजे लगभग बंद हो जाने के कारण अब ठीक आम चुनाव से कुछ ही महीनों पूर्व उत्तराखण्ड एक बार फिर संवैधानिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता की नौबत आ गयी है। क्योंकि मुख्यमंत्री बने रहने के लिये तीरथसिंह रावत को 9 सितम्बर तक उप चुनाव जीत कर विधानसभा की सदस्यता ग्रहण करनी ही होगी और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 151 ए के अनुसार फिलहाल उत्तराखण्ड में उपचुनाव कराना संभव नहीं है। इस स्थिति में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के स्थान पर या तो नया मुख्यमंत्री नियुक्त करना होगा या फिर विधानसभा भंग कर चुनाव तक राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था करनी होगी।
संविधान के अनुच्छेद 164 (4) के प्रावधानों के भरोसे उत्तराखण्ड में तीरथसिंह रावत ने विधायक न होते हुये भी त्रिवेन्द्र रावत की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी तो संभाल ली उनको इसी अनुच्छेद के प्रावधानों के तहत 6 महीने के अन्दर विधायिका की सदस्यता भी हासिल करनी है जिसकी अवधि 9 सितम्बर 2021 को पूरी हो रही है। इसके लिये उन्हें उपचुनाव जीतना अति आवश्यक है, निर्वाचन आयोग की 9 अक्टूबर 2018 ,एवं 5 मई 2021 की विज्ञप्तियों के अलोक में देखें तो उत्तराखंड में अब 2022 के आम चुनाव तक उपचुनाव की संभावना नज़र नहीं आती। तीरथ सिंह रावत की ही तरह विधायक न होते हुये भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 5 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। ममता के शपथ ग्रहण के ही दिन निर्वाचन आयोग ने कोराना महामारी से हालात सामान्य होने तक उप चुनाव न कराने की घोषणा कर पश्चिम बंगाल में भी अनिश्चितता के बीज तो बो ही दिये मगर फिर भी ममता की संभावनाएं समाप्त नहीं हुयी हैं, क्योंकि उनके पास 5 साल का काफी लम्बा समय बचा हुआ है जिसमें वह कभी भी चुनाव लड़ कर पुनः पद की शपथ ले सकती हैं। उनके लिये पहले ही सोभनदेव चट्टोपाध्याय ने भबानीपुर सीट खाली कर दी। लेकिन तीरथसिंह के लिये किसी भी हाल में हालात माकूल नजर नहीं आते।
तीरथ सिंह ने गलतफहमी में सबसे बड़ी गलती अल्मोड़ा जिले की सल्ट विधानसभा सीट से चुनाव न लड़ कर कर दी। इसके लिये तीरथ सिंह से अधिक कसूरवार उनकी पार्टी और सरकार है जिन्होंने मुख्यमंत्री को सही सलाह नहीं दी। सल्ट विधानसभा के उपचुनाव के लिये प्रदेश स्तर पर भाजपा की कोर कमेटी ने प्रत्याशी का चयन कर अनुमोदन के लिये केन्द्रीय नेतृत्व को भेज दिया था। हास्यास्पद बात तो यह है कि अब जबकि चिड़िया खेत चुग चुकी है और भाजपा के नेता डींगें हांके जा रहे हैं कि मुख्यमंत्री के लिये कांग्रेस के 6 विधायक सीट छोड़ने के लिये तैयार हैं। यही नही अब तक भाजपा के एक मंत्री समेत कई विधायक मुख्यमंत्री के लिये अपनी सीट छोड़ने का प्रस्ताव कर रहे हैं। इसी बीच विधानसभा की गंगोत्री रिक्त सीट से मुख्यमंत्री को उपचुनाव लड़ाने की तैयारियां भी शुरू हो गयी हैं। यह फैसला करने वाले भूल रहे हैं कि यह सीट 22 अप्रैल को भाजपा विधायक गोपाल सिंह रावत के निधन से खाली हुयी थी और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951की धारा 151 क के अनुसार विधानसभा का शेष कार्यकाल 23 मार्च 2022 तक होने के कारण इस सीट पर भी समय एक साल से कम होने के कारण उपचुनाव नहीं हो सकता।
संविधान के अनुच्छेद 164(4) के अनुसार कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा। इसके लिये जरूरी है कि वह मंत्री या मुख्यमंत्री किसी भी रिक्त सीट से उपचुनाव जीत कर सदस्यता ग्रहण करे। इसके अलावा जहां विधान परिषद है वहां आसान तरीके से ऊपरी सदन की सदस्यता भी ग्रहण की जा सकती है। लेकिन उत्तराखण्ड में विधानपरिषद नहीं है जबकि पश्चिम बंगाल में विधान परिषद 1969 में समप्त कर दी गयी थी। जिसे पुनर्जीवित करने के लिये ममता सरकार ने प्रस्ताव तो पास करा दिया मगर अंतिम निर्णय संसद को करना जो कि मोदी सरकार के ही हाथ में है। बहरहाल विधानसभा के उप की व्यवस्था लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 150 में की गयी है। लेकिन साथ ही इसी अधिनियम की धारा 151 क में समयावधि के बारे में कहा गया है कि:-धारा 147, धारा 149, धारा 150 एवं धारा 151में किसी बात के होते हुये भी, उक्त धाराओं में से किसी में निर्दिष्ट किसी रिक्ति को भरने के लिये उपनिर्वाचन, रिक्ति होने की तारीख से छह माह की अवधि के भीतर कराया जायेगा: परन्तु इस धारा की कोई बात उस दशा में लागू नहीं होगी, जिसमें ….(क) किसी रिक्ति से संबंधित सदस्य की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम है ; या (ख) निर्वाचन आयोग, केन्द्रीय सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उपनिर्वाचन कराना कठिन है।
वर्ष 2018 में जब निर्वाचन आयोग द्वारा कर्नाटक की तीन लोकसभा सीटों पर उपचुनाव की घोषणा करने और आन्ध्र प्रदेश की 5 रिक्त लोकसभा सीटों के बारे में चुप हो जाने पर विवाद उठा था तो आयोग ने 9 अक्ूबर 2018 को प्रेस विज्ञप्ति जारी कर स्पष्ट किया था कि कर्नाटक की सीटें मई मई 2018 में और आन्ध्र की सीटें जून 2018 में रिक्त हुयी हैं। कर्नाटक के लिये रिक्ति अवधि एक साल से अधिक और आन्ध्र के लिये एक साल से कम होने के कारण लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 151 (क) के प्रावधानों के अनुसार उपनिर्वाचन संभव नहीं हैं। उत्तराखण्ड में भी इस व्यवस्था के अनुसार अब इस साल उपचुनाव संभव नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट की ए.एस. आनन्द की अध्यक्षता वाली पीठ ने 7 अगस्त 2001 को एस. आर. चैधरी बनाम पंजाब सरकार मामले में गैर सदस्य तेज प्रकाश सिंह को 23नवम्बर 1996 को राजेन्दर कौर भट्टल दुबारा मंत्री नियुक्त किये जाने को अनुचित, अलोकतांत्रिक, अवैधानिक और असंवैधानिक घोषित करते हुये निर्णय दिया था कि किसी भी गैर सदस्य को विधानसभा या लोकसभा के एक कार्यकाल में एक ही बार विधायक या सांसद न होते हुये भी मंत्री चुना जा सकता है। इस तरह देखा जाये तो उत्तराखण्ड में तरीथसिंह के लिये 9 सितम्बर 2021 के बाद मुख्यमंत्री बने रहने के लिये लगभग सभी दरवाजे बंद नजर आ रहे हैं। इस स्थिति में राज्य में एक बार फिर नेतृत्व परिवर्तन की नौबत आ गयी है। ऐसा न हुआ तो फिर विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन भी एक विकल्प हो सकता है।