आज पूर्णियाँ जिला मुख्यालय स्थित अम्बेडकर सेवा सदन मे हूल क्रांति दिवस मनाया गया जिसकी अध्यक्षता यमुना मुर्मू ने की तथा संचालन मोहम्मद ईस्लामुद्दीन ने किया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में अम्बेडकर सेवा सदन के अध्यक्ष जीनत लाल राम, संस्थापक सदस्य शंभू प्रसाद दास तथा किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक नियाज अहमद उपस्थित रहे।
इस अवसर पर किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक नियाज अहमद ने अपने सम्बोधन मे हुल क्रांति दिवस पर प्रकाश डालते हुए कहा कि संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है विद्रोह 30 जून, 1855 को आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और 400 गांवों के 50,000 से अधिक लोगों ने भोगनाडीह गांव पहुंचकर जंग का एलान कर दिया. यहां आदिवासी भाई सिदो-कान्हू की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही अंग्रेज हमारी माटी छोड़ों का एलान किया. इससे घबरा कर अंग्रेजों ने विद्रोहियों का दमन प्रारंभ किया.
अंग्रेजी सरकार की ओर से आये जमींदारों और सिपाहियों को संथालों ने मौत के घाट उतार दिया. इस बीच विद्रोहियों को साधने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की हदें पार कर दीं. बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया, तो दूसरी तरफ सिदो और कान्हू को पकड़ कर भोगनाडीह गांव में ही पेड़ से लटका कर 26 जुलाई, 1855 को फांसी दे दी गयी. इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है. इस महान क्रांति में लगभग 20,000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया.
इस अवसर पर यमुना मुर्मू ने हूल क्रांति का उल्लेख करते हुए कहा कि मौजूदा संथाल परगना का इलाका बंगाल प्रेसिडेंसी के अधीन पहाड़ियों एवं जंगलों से घिरा क्षेत्र था। इस इलाके में रहने वाले पहाड़िया, संथाल और अन्य निवासी खेती-बाड़ी करके जीवन-यापन करते थे और जमीन का किसी को राजस्व नहीं देते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदार की फौज तैयार की जो पहाड़िया, संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगे। लगान देने के लिए उनलोगों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता और साहूकार के भी अत्याचार का सामना करना पड़ता था। इससे लोगों में असंतोष की भावना मजबूत होती गई। सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव चारों भाइयों ने लोगों के असंतोष को आंदोलन में बदल दिया।
मोहम्मद ईस्लामुद्दीन ने हुल क्रांति का उल्लेख करते हुए कहा कि आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने सेना भेज दी और जमकर आदिवासियों की गिरफ्तारियां की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पुरस्कारों की भी घोषणा की थी। बहराइच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूलर बंगाल’ में लिखा है, ‘संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।’ जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी। सिद्धू और कान्हू के करीबी साथियों को पैसे का लालच देकर दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई। इस तरह सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव, ये चारों भाई सदा के लिए भारतीय इतिहास में अपना अमिट स्थान बना गए।
कार्यक्रम अन्य व्कता के रूप में विजय कुमार, चतुरी पासवान, अविनाश पासवान ,दिनेश लाल राम,मुख्तार आलम, नरेश मारंडी, बीनू हेंब्रम,राजकुमार टूडू, सुलेखा देवी, कामेश्वर ऋषि देव, हरी लाल पासवान उमेश प्रसाद यादव समेत बड़ी संख्या में जिले के अलग अलग क्षेत्रों से आए लोगों ने भाग लिया