शक्ति,सत्ता,प्रभाव के विस्तार और राजनैतिक औजार के रूप में धर्म का इस्तेमाल समाज को उन्मादी बनाता है।
धर्म व्यक्ति को उच्च नैतिक गुणों से सुशिक्षित,प्रशिक्षित,संस्कारित और सुविकसित करता है। धर्म का वास्तविक निहितार्थ विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक,अभौतिक और पारलौकिक सत्ता से साक्षात्कार कर व्यक्तिगत जीवन को सद्गुणी और सदाचारी बनाना है। परन्तु शक्ति सत्ता और प्रभाव के विस्तार और संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थो की पूर्ति में धर्म का प्रयोग समाज को उन्मादी बना देता है। धर्म वस्तुतः मनुष्य में निहित समस्त प्रकार की पाशविक प्रवृत्तियों से पूर्णतः उन्मुक्त कर मनुष्य को सर्वग्राही,सर्वव्यापी मानवोचित गुणों से परिपूर्ण और परिपोषित करता है । परन्तु धर्म को धन्धा बनाने वाले कुछ ढपोरसंखियो और कठमुल्लों ने धर्म और धार्मिक कर्मकांडो को मानव-मात्र के शोषण का औजार बना दिया। धर्म मनुष्य को समस्त प्रकार के दुर्गुणों, दुर्विकारो और दुर्व्यसनों से दूर करता है,और मनुष्य के मन,मस्तिष्क, हृदय और अंतःकरण को निर्मल कर देता है । जिससे हर मनुष्य के मन,मस्तिष्क, हृदय और अंतःकरण में दया करूणा परोपकार सहानुभूति सद्भावना सहकार समन्वय साहचर्य सहिष्णुता सहयोग और समरसता की गंगोत्री प्रवाहित होने लगती है। इसके साथ धार्मिक और आध्यात्मिक चिंतन से हताश निराश और उदास हृदयो में आशा, विश्वास और उम्मीद की किरण प्रस्फुटित होने लगती है तथा व्यक्तित्व और कृतित्व में सकारात्मक रचनात्मक और सृजनात्मक उर्जा का संचार होने लगता है। प्रकारांतर से धर्म के मौलिक और गुणात्मक स्वरूप को हृदयंगम और आत्मसात करने से व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्टता और सामाजिक जीवन में सद्भावना का संचार होता है। परन्तु मात्रात्मक और संख्यात्मक पहलू को ध्यान में रखकर राजनीतिक दल जब धार्मिक समुदाय का इस्तेमाल राजसत्ता प्राप्ति के लिए एक जंनाकीकीय ईकाई या एक मतदाता समूह के रूप में करने लगते हैं तो समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द खतरे में पड जाता है । तर्क बुद्धि विवेक से सम्पन्न मनुष्य धार्मिक ईकाई के साथ साथ सामाजिक और राजनीतिक ईकाई के रूप में संगठित होता रहता हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से संगठित मानव समुदाय का उद्देश्य विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक और धार्मिक होने चाहिए परन्तु जब धार्मिक रूप से संगठित मानवीय समुदाय का उद्देश्य राजनीतिक होने लगता है तो समाज में साम्प्रदायिकता और तुष्टीकरण जैसी धारणाएं फलने फूलने लगती हैं तथा समाज और राजनीति का धर्मनिरपेक्ष चरित्र संकट में आ जाता हैं।आम जनमानस की बुनियादी समस्याओं का बेहतर समाधान करने के लिए राजनीति का चरित्र धर्मनिरपेक्ष होना आवश्यक हैं। वर्तमान दौर में वैश्विक स्तर पर राजनीति में बढती धार्मिक प्रवृत्तियों गतिविधियों हलचलों और दखलंदाजियो को देखते हुए धर्म की मौलिक भूमिका का ऐतिहासिक अवलोकन और विश्लेषण करना आवश्यक हो गया है। सम्पूर्ण वैश्विक इतिहास को खोजने खंगालने पर पता चलता है कि-कई बादशाहों सुल्तानों राजाओं और चक्रवर्ती सम्राटों ने अपने साम्राज्य और अपनी सल्तनत को अपनी पीढियों के लिए सुरक्षित और संरक्षित रखने के लिए धर्म का बखूबी इस्तेमाल किया । कुछ साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के राजाओं सुल्तानों और बादशाहों ने युद्ध जीतने के लिए भी धर्म का इस्तेमाल किया तथा कुछ शासकों ने अपनी सल्तनत के खोने छीनने के भय से उपजी हताशा और निराशा और पराजित और परास्त होने की आशंका में भी धर्म का इस्तेमाल किया। भारत में मुगल वंश के संस्थापक जहीरूद्दीन मुहम्मद बाबर का भारतीय बसुन्धरा पर पहला युद्ध(पानीपत का प्रथम युद्ध) दिल्ली सल्तनत के तत्कालीन सुल्तान इब्राहीम लोदी के साथ हुआ जो स्वयं एक मुसलमान था । परन्तु राणा सांगा के साथ खानवाॅ के युद्ध के समय बाबर ने अपने हताश निराश डरे और सहमे सैनिकों में हौसला भरने के लिए किया। यह सर्वविदित और सर्वमान्य तथ्य हैं कि- दुनिया के निरंकुश शासकों ने जनता के मध्य अपनी शासन सत्ता की वैधता के लिए पुरोहित वर्ग के साथ मिलकर बडी चालाकी और चतुराई से धर्म का प्रयोग किया। इतिहास का तथ्यपरक बौद्धिक और तार्किक विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि- जब-जब राजसत्ताओ ने धर्म के साथ घालमेल करने का प्रयास किया है तो समाज में अंधभक्ति अंधविश्वास और अंधी-आस्था का साम्राज्य पर्वतित हुआ है तथा समाज एक उन्मादी भीड के रूप में परिवर्तित हुआ है। रोमन साम्राज्य के पतन के उपरांत पूरा यूरोपीय महाद्वीप धर्मान्धता की आग में जलने लगा तथा अंधविश्वास और अंधभक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई। तर्क बुद्धि विवेक ज्ञान विज्ञान का स्थान अंधभक्ति अंधविश्वास और अंधी-आस्था ने ले लिया और इसके फलस्वरूप पूरा यूरोपीय समाज अंधकार में डूब गया जिसे इतिहास मे अंधकार युग के नाम से जाना जाता है। पन्द्रहवी शताब्दी में होने वाले धर्म सुधार आन्दोलन और पुनर्जागरण के फलस्वरूप यूरोपियन समाज ने जब धर्मांधता का चोला उतार कर फेंक दिया और अंधविश्वास अंधभक्ति और अंधी-आस्था के स्थान पर जब पुनः तर्क बुद्धि विवेक और ज्ञान-विज्ञान का परिवेश निर्मित हुआ तब यूरोप में पुनः विकास की सम्भावनाएं निर्मित होने लगी। पन्द्रहवीं शताब्दी में पुनः निर्मित तार्किक बौद्धिक वैज्ञानिक परिवेश में यूरोप में अनगिनत खोंजो और आविष्कारों का चमत्कार हुआ जिसके फलस्वरूप यूरोपियन देश बहुआयामी उन्नति की राह पर सरपट दौड़ने लगे और आज भी तरक्की के नित नये आसमान को स्पर्श कर रहे हैं । यूरोपियन देशों का विकास इसका प्रमाण है कि- विकास के लिए धर्मसत्ता और राजसत्ता के मध्य स्पष्ट विभाजन आवश्यक है तथा समाज और राजनीति का चरित्र धर्मनिरपेक्ष होना आवश्यक है। भारत सहित दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के चुनावी मौसम में धर्म,जाति,सम्प्रदाय और प्रजाति का जमकर प्रयोग किया जाता हैं। कुछ राजनीतिक दलों का संगठन और निर्माण ही धर्म जाति और सम्प्रदाय की बुनियाद पर ही होता हैं।धर्म जाति सम्प्रदाय की बुनियाद संगठित और संचालित राजनीतिक दल अपने संकीर्ण सत्तावादी स्वार्थों की पूर्ति के लिए आम जनमानस का जातिवादी सांप्रदायिक पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षण प्रशिक्षण करते हैं जिसके फलस्वरूप धीरे-धीरे समाज उन्मादी भीड में बदलने लगता है। तर्क बुद्धि विवेक लेकर धरती पर अवतरित मनुष्य को आस्था निष्ठा के नाम पर अंधभक्त बनाने का निरंतर प्रयास राजनीतिक दलों द्वारा किया जाता है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के यूनानी समाज का अवलोकन और अध्ययन करें तो पता चलता है कि-आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व का यूनानी समाज तर्क बुद्धि विवेक के आधार हर तरह की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विचार विमर्श और गम्भीरता से बहस करता था और इसके साथ ही साथ हर तरह की आलोचना के लिए पूरी तरह तरह स्वतंत्र था। तर्क बुद्धि विवेक और ज्ञान-विज्ञान के स्वतंत्र वातावरण में प्राचीन यूनान ने अनगिनत चमत्कार किए। इसलिए प्राचीन यूनान को ज्ञान-विज्ञान का पालना कहा जाता हैं। इस ऐतिहासिक सच्चाई से स्पष्ट समझदारी विकसित होती हैं कि- धर्म का प्रयोग व्यक्तित्व के उच्चतम नैतिक गुणों के विकास और उस विकास के फलस्वरूप हर हृदय में उपजे दया करूणा परोपकार सहानुभूति सद्भावना सहकार समन्वय साहचर्य सहिष्णुता और सहयोग की बुनियाद पर स्वस्थ्य समरस सहिष्णु समाज बनाने के लिए करना चाहिए।गरीबी कुपोषण भूखमरी बेरोजगारी अशिक्षा जैसी अनगिनत समस्याओं को जड मूल से समाप्त करने के लिए धार्मिक क्रियाकलापों और राजनीतिक क्रियाकलापों में स्पष्ट विभाजन आवश्यक है।आज पुरी दुनिया में लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली माना जाता है और पुरी दुनिया संसदीय जनतंत्र की बयार बह रही है। परन्तु यह भी कडवी सच्चाई है कि लोकतंत्र में बहुमत की दरकार होती है। बहुमत प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों तरह तरह के हथकण्डे अपनाए जाते हैं तथा जनमानस की आस्था निष्ठा प्राप्त करने के लिए भावनात्मक धोखाधड़ी का खेल संसदीय जनतंत्र में आम बात हो गई है। संसदीय जनतंत्र में सत्ता प्राप्ति के लिए धार्मिक भावनाओं को उकसाने उकेरने और उसके आधार पर वोट उगाहने का प्रयास संसदीय जनतंत्र की नैतिक परम्पराओं पर कुठाराघात हैं। इसलिए धर्म का इस्तेमाल समाज में उन्माद फैलाने के लिए कतई नहीं होना चाहिए। इस उन्माद में किसी न किसी भोले भाले बेवस लाचार की घर गृहस्थी उजडती जरूर है।
मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।