किसान आंदोलन:कर्मचारी संघों के लिए नजीर
अंततः वही हुआ जिसकी प्रत्याशा इतनी सहज तो नहीं थी जितनी सहजता से एकसाथ तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान प्रधानमंत्री ने एक झटके में कर दिया।केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा जनतंत्र में जनमानस की शक्ति की अपराजेयता को एकबार फिर प्रमाणित कर दी है।कदाचित देश और प्रान्तों के शिक्षक तथा कर्मचारी संघों को अब किसान आंदोलन से सबक तथा शिक्षा लेते हुए एकीकृत हो समग्र आंदोलन छेड़ते हुए जागने का यही सबसे उपयुक्त और प्रासङ्गिक समय है।जिससे धूमिल होते पुरानी पेंशन सहित अन्य मुद्दों के समाधान की पृष्ठभूमि तैयार होने औरकि अपने मुकाम तक पहुंचने में सहूलियत होगी।
वस्तुतः किसान आंदोलन आज़ादी के बाद सबसे अधिक समय तक चलने वाले आंदोलनों में एक तथा काफी उद्वेलित करने वाला रहा है।इस आंदोलन में अनेक किसानों की असामयिक मौतें भी हुईं,हिंसक वारदातों से स्थिति विस्फोटक भी बनी किन्तु आंदोलन बन्द नहीं हुआ।यही निरंतरता ही अन्तत: आंदोलन की जीत का कारण बनीं।इस आंदोलन से एकबात फिर प्रतिष्ठापित हुई कि यदि दृढ़ता और लगन के साथ कोई आंदोलन जनमानस के साथ अच्छी भावना से किया जाय तो कदापि निष्फल नहीं हो सकता।यही बात शिक्षक और कर्मचारी संघों के लिए प्रेरणादायी और मार्गदर्शक है।जिसका अनुकरण,अनुसरण तथा अनुशीलन ही कर्मचारी संघों को फिर से पुरानी पेंशन और अनिवार्य जीवन बीमा जैसी खोई उपलब्धियों को दुबारा हासिल करने में मददगार हो सकते हैं।
जानकारों के अनुसार कृषि कानूनों की वापसी कोई हड़बड़ी में उठाया गया कदम नहीं है।दरअसल में इन कानूनों की वापसी की पटकथा तो यूपी चुनावों के समय वापसी करने की पूर्व में ही लिखी जा चुकी थी।अलबत्ता केंद्र सरकार इसके लिए उपयुक्त अवसर की तलाश में अवश्य थी।जिसके लिए देव दीपावली के दिन से बेहतर और कोई दिन नहीं हो सकता था।कुछ जानकर तो इस बात का अभी अंदेशा करते हैं कि आनेवाले दिनों में पुनः किसान संघों द्वारा ही किसानों के लिए कुछ संशोधनों के साथ नवीन कानूनों की मांग जोरशोर से की जानी अवश्यम्भावी है।जिससे किसान आंदोलन में हुई अप्रिय घटनाएं नेपथ्य में चली जायेगीं।
समय साक्षी है कि जबजब किसानों और कर्मचारियों में सत्यनिष्ठा तथा समर्पण से कोई आंदोलन किया है तो वह निष्फल नहीं रहा है।उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षकों व कर्मचारियों हेतु वेतन वितरण अधिनियम तथा सेवा सुरक्षा की मांग को लेकर तत्कालीन शिक्षक नेता ओम प्रकाश शर्मा एवम पंचानन राय के नेतृत्व में जो ऐतिहासिक आंदोलन हुआ था वह आज भी जनता के जेहन में विद्यमान है।उस समय की कांग्रेस सरकार पूरी तरह से शिक्षकों व कर्मचारियों के दमन पर उतारू थी।मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा स्प्ष्ट शब्दों में कर्मचारियों की मांगें मानने से इनकार कर चुके थे।जिससे शिक्षकों ने जेल भरो आंदोलन की घोषणा कर दी।लिहाजा उत्तर प्रदेश के पचास हजार से अधिक शिक्षक एकदिन में सहर्ष जेल चले गए।बीबीसी लंदन ने शिक्षकों के इस आंदोलन को गांधी के आंदोलन के बाद सबसे बड़ा आंदोलन बताते हुए अंतरराष्ट्रीय समाचार प्रसारित किए थे।जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व श्रीमती इंदिरा गांधी को दिल्ली से लखनऊ आना पड़ा था औरकि 1974 में वेतन वितरण अधिनियम को 1971 से लागू किया गया।किसान आंदोलन भी ऐसा ही एक आंदोलन कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा।
यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि सबको जागृत करने वाला शिक्षक और सर्वदा अपने हक हुक़ूक़ के लिए जागरूक कर्मचारी आज पुरानी पेंशन और अनिवार्य जीवन बीमा जैसी उपलब्धियों को गंवाने के बावजूद एकसाथ एकमंच पर आने से कतराते हैं।यही पारस्परिक बिलगाव और दूरियां ही दिनोंदिन उनकी क्षीणता के प्रमुख कारण भी हैं।पहले इंटक,हिन्द मजदूर सभा और माध्यमिक शिक्षक संघ आदि मजबूत संगठनों की हालत आज पहले जैसी नहीं रही।समय के साथ-साथ इनके नेताओं की कुर्सी लोलुपता और शिक्षकों तथा कर्मचारियों में बढ़ता आलस्य एवम घटती सङ्घनिष्ठता के चलते आज की स्थिति बड़ी बदतर है।कर्मचारी संघों में भी कई कई फ्रंट और गुट बन गए हैं।जिससे समवेत स्वरों में अधिकारों की मांग होने के बजाय सरकारी चाटुकारिता को बढ़ावा तथा अधिकारियों को प्रश्रय मिलने लगा है।जिससे सभी शिक्षक व कर्मचारी त्रस्त हैं।
ध्यातव्य है कि 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल जी द्वारा देशभर के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर नवीन पेंशन योजना पर विचार विनिमय किया गया था।जहाँ पर राज्यों को पुरानी पेंशन और नई पेंशन दोनों या फिर दोनों में से कोई एक चुनने का विकल्प था।किंतु दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में बैठक में गए कैबिनेट मंत्री अशोक बाजपेई ने उक्त बैठक में बिना विचार किये ही पुरानी पेंशन के बदले नवीन पेंशन को अंडरटेक कर दिया गया।जिससे उस समय के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव स्वयम सहमत नहीं थे।यही कारण है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में इसे लागू नहीं किया।कमोवेश नफा नुकसान का आंकलन करने में माहिर मायावती ने भी इसे लागू नहीं किया किन्तु बाद में अखिलेश यादव द्वारा इसे पश्चगामी तिथि 01 अप्रैल 2005 से लागू करते हुए राज्य पंद्रह लाख से अधिक शिक्षकों व कर्मचारियों के हितों के साथ अक्षम्य खिलवाड़ किया गया।जिसका दंश का एहसास 2005 के पश्चात सेवा में आये प्रत्येक शिक्षक और कर्मचारी को प्रतिदिन होता है।
संक्षेप में किसान आंदोलन के चलते विवादित कृषि कानूनों की वापसी देर से ही सही किन्तु एक स्वागतयोग्य कदम है।अब बारी शिक्षकों और कर्मचारियों की है।जिन्हें भी अपने गुटीय मतभेद मिटाकर एकसाथ एकमंच पर सतत चलने वाले आंदोलन को मूर्तरूप देना होगा।लक्ष्य मुश्किल किन्तु भविष्य भाष्वर है।माँ भारती स्वयम राजमद में चूर राजनेताओं को सद्बुद्धि देंगीं जिनकी जड़ें आंदोलन हिला कर रख देगा।अन्यथा कोई अन्य उपाय नहीं हैं।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
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