कृषि कानूनों का खात्मा:फिर सुकरात को विषपान
विश्वविश्रुत कवि दिनकर जी ने लिखा है-
“प्रण करना है सरल , कठिन है उसे निभाना।
उससे ज्यादा कहीं कठिन है,प्रण का अंतिम मोल चुकाना।।”
कदाचित अपने दृढ़ संकल्पों व निर्णयों के लिए जाने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उक्त पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हुईं एक नए उदाहरण सहित दृष्टांत को परिभाषित करती हुई जान पड़ती हैं।जिससे यह कहना ग़ैरमुनासिब नहीं होगा कि जनहित और जनप्रिय के बीच फँसे सदैव नवाचारी संकल्पधारी सुकरात की ही तरह यह स्थिति प्रधानमंत्री मोदी के लिए किसी विषपान से कम नहीं है,जोकि विचारणीय यक्ष प्रश्न औरकि अनुत्तरित है।
वस्तुतः किसानों की स्थिति सदैव से सियासत का मुद्दा तो बनती रही है किंतु किसानों के लिए चौधरी चरण सिंह के पश्चात अगर कोई युगान्तकारी निर्णय लेने वाला सक्षम दूरदर्शी राजनेता वैश्विक पटल पर उभरा तो वह निःसन्देह प्रधानमंत्री मोदी ही हैं।बात चाहे किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य भुगतान की हो या फिर कृषक सम्मान निधि की हो सबमें प्रधानमंत्री मोदी नीत केंद्र सरकार सदैव जागरूक होकर कार्य कर रही थी किन्तु कांग्रेस सरकार के दौरान जिस कृषि कानून पर संसद में सभी दलों ने आम सहमति प्रदान की थी आखिर मोदी सरकार द्वारा उसके क्रियान्वयन को लेकर इतना होहल्ला और माथापच्ची क्यों मची,यह सोचनीय है।कदाचित प्रधानमंत्री की बढ़ती लोकप्रियता को रोकने के लिए राजनैतिक दलों ने किसानों को मोहरा बनाया।जिसका अंजाम यह हुआ कि अंततः तीनों विवादित कृषि कानून केंद्र सरकार ने गुरु पूर्णिमा के दिन वापस लेते हुए किसानों को विजय श्री प्रदान करते हुए उन्हें देव दीपावली मनाने का उपहार दे दिया।एकाएक हुए ऐसे निर्णय से उन राजनैतिक दलों और किसान संगठनों को धक्का अवश्य लगा होगा,जिन्होंने आंदोलन को फंडिंग करते हुए राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने में सारी ऊर्जा लगा दी थी।कमोवेश कृषि कानूनों की वापसी विरोधी दलों के लिए भी किसी पराजय से कम नहीं है।
इतिहास साक्षी है कि इस संसार में जनप्रिय और जनहित शब्दों के फेर में सदैव जनहितकारी निर्णय लेने वालों को अपने समय में नाना प्रकार के विरोध और तिरस्कार का सामना करना पड़ा है।अपने समय में सुकरात को मात्र इसलिए हैमलोक नामक जहर पिलाकर मार डाला गया था क्योंकि उसने उस समय प्रचलित नियम के विरुद्ध यह नियम प्रतिपादित किया था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है।जबकि तत्कालीन विशप और पादरी यह मॉनते थे कि सूर्य घूमता है।लिहाजा सत्यशील सुकरात को विषपान करने हेतु विवश होना पड़ा।जबकि आज विज्ञान यही कहता है कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है।कदाचित यही हाल प्रधानमंत्री मोदी की भी है।विश्व इतिहास में अब्राहम लिंकन,भगवान महावीर,प्रभु राम सहित ऐसे अनेक उदाहरण हैं।जिनसे यह प्रमाणित होता है कि विश्वकल्याण और जनहित के प्रति सदैव समर्पित लोगों को नाना प्रकार से विरोधों का सामना करना ही पड़ता है।प्रधानमंत्री मोदी भी उनमें से एक नवीन उदाहरण बन गए हैं।
सुभाषित रत्नानि में लिखा गया है-
यथा औषधम स्वादुम हितम च दुर्लभम।
आज यही हाल कृषि कानूनों की भी है।कोई भी गुणकारी औषधि स्वादिष्ट नहीं होती और कोई भी जनकल्याणकारी निर्णय क्रियान्वयन में जनप्रिय नहीं होता।कालांतर में लोग उसकी उपादेयता को समझते और स्वीकार करते हैं।मोदी द्वारा शुरू की गई कृषक सम्मान योजना और उनके खातों में धन भेजे जाने का किसी भी व्यक्ति या राजनैतिक दल ने विरोध नहीं किया क्योंकि इसका सीधा लाभ तो उनको भी हो रहा है,जो मोदी के प्रबल विरोधी हैं।जिससे सिद्ध होता है कि यदि अपना लाभ हो तो चुप रहना ठीक है और यदि लाभ परोक्ष हो तो किसानों को मोहरा बनाकर चिल्लपों मचाना ही सियासत बन गयी है।यह स्थिति दुखद है।
संसद के आगामी सत्र में केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने हेतु संसद में प्रस्तुत किया जाएगा।इससे इस बात की प्रबल संभावना बनती है कि सरकार इसपर चर्चा भी कराएगी।जिससे विपक्षी दल भागने का प्रयास करेंगें।यह कानून अब विपक्षी दलों के लिए भी सांप छँछुदर का खेल बन गया है।
कृषि कानूनों की वापसी से अब यह प्रश्न उठने लगा है कि क्या अब किसानों की उन्नति वास्तव में होगी अन्यथा कि फिर किसी नए कानून की मांग होगी।अंदेशा तो यही है कि निकट भविष्य में किसान ही पुनः नए कानून की मांग करेंगें।जिस पर नरेंद्र मोदी सरकार विपक्षी दलों को अवश्य आईना दिखाने का विकल्प तराशेगी क्योंकि मोदी कभी भी बैकफुट की राजनीति करते नहीं है।अतः किसानों से मांगी गई माफी मौके पर विषपान भले लग रही हो किन्तु निकट भविष्य में यही भाजपा के लिए संजीवनी से कमतर साबित नहीं होगी।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
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