ज्ञान और कर्म
ईशावास्य उपनिषद में कहा गया है-
विद्याम चाविद्याम च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युम तीर्त्वा विद्ययाSमृतमश्नुते।।
जो दोनों को अर्थात विद्याम-ज्ञान के परमतत्व को और अविद्याम-कर्म के व्यापक तत्व को भी साथ-साथ भली प्रकार से हृदयंगमी बना लेता है वह कर्मों की उपासना से अमृत को भोगता है अर्थात परमेश्वर के व्यापक स्वरूप को प्रत्यक्ष प्राप्त कर लेता है।
वस्तुतः कर्म और अकर्म का वास्तविक रहस्य समझने में बड़े-बड़े ज्ञानी भी भूल कर बैठते हैं।इसीलिए कर्म के वास्तविक रहस्य से अनभिज्ञ सूक्ष्म ज्ञान का परिचय करने वाला मनुष्य कर्म को परमेश्वर के ज्ञान में बाधा समझते हुए अपने अवश्यमेव कर्तव्यकर्मों का परित्याग कर देता है,परन्तु इसप्रकार के परित्याग से उसे त्याग का फल अर्थात कर्मबन्धन से कभी मुक्ति नहीं मिलती है।
गीता में भगवान कृष्ण भी इसीभाव को समझाते हुए अर्जुन से कहते हैं कि-
दुखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात त्यजेत।
स कृत्वा राजस त्यागम नैव त्यागफलम लभेत।।
अर्थात यदि कोई मनुष्य अपने सभी कर्तव्यकर्मों को दुःखरूप समझकर शारीरिक कष्ट की डर से डरता हुआ परित्याग कर दे तो भी उस त्याग के फल को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता है।इसप्रकार यह अर्थ निकलता है कि ज्ञान व अकर्मावस्था का व्यापकतत्व न समझने के कारण मनुष्य अपने को परमज्ञानी तथा सर्वाधिकारी मान लेता है।यही अहंकार कहलाता है।जिससे स्वयम को पाप व पुण्य से रहित समझकर स्वेच्छाचारी बनकर पापाचारों में लग जाता है और आलस्य,निद्रा,प्रमाद में लीन होता हुआ अपने प्रगतिशील जीवन के अमूल्य समय को व्यर्थ ही गंवा देता है।अतः कर्म और ज्ञान के रहस्य को एकसाथ समझते हुए उनका नित्य नियमपूर्वक यथाविधि अनुपालन करना ही सभी प्रकार के अनर्थों से बचने का एकमात्र उपाय है।
ईशावास्य उपनिषद में ही सम्भूति और असम्भूति दोनों के व्यापक तत्वों का एकसाथ वर्णन करते हुए लिखा गया है कि-
सम्भूति च विनाशम च यस्तदवेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते।।
अर्थात जो उन दोनों का अर्थात सम्भूति-निर्विकार सर्वाधार परमात्मा को और विनाशम-विनाशशील देव, पितर, मनुष्य आदि को भी साथ-साथ समझ लेता है।अर्थात विनाशशील पितर, मनुष्य आदि देवादि की अर्चना से,वंदना से मृत्यु को पार करके सम्भूत्या-निर्विकार जगतनियन्ता जगदाधार सर्वाधार की उपासना से अमरत्व को भोगता है।उसे इसप्रकार अविनाशी सर्वाधिपति परमात्मा की प्रत्यक्ष प्राप्ति होती है।गीता में ही श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि-
ज्ञानम ज्ञानवताहम।
अर्थात ज्ञानियों में मैं(श्रीकृष्ण) ही ज्ञान(परमात्मा)हूँ।ज्ञान ही सत-असत, उचित-अनुचित,हितकारी-अहितकारी आदि का सम्यक बोध कराता है।कर्म का सम्यक अनुपालन,अनुशीलन भी ज्ञान से ही सम्भव है।
गीता में ही लीलाधर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।अर्थात किसी उद्देश्य को ध्यानकर उसकी प्राप्ति को चरम मानना ही लक्ष्य का निर्धारण कहलाता है।इस निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हेतु कर्ता या मानव जो भी उपागम अपनाता है उसे कर्म की संज्ञा दी जाती है।यदि सदेच्छा से किया गया कर्म भी इच्छित फल नहीं प्रदान करता तो इसमें कर्ता की निराशा अवश्य दृष्टिगोचर होती है किंतु फल प्राप्ति में मानव का कोई अधिकार नहीं होता।इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के कर्म का कोई स्वतंत्र मूल्यांकन कर्ता होना चाहिए,जो अनुचित-उचित में सर्वथा विभेदन में दक्ष हो हंस की तरह नीर-क्षीर को अलग करने में समर्थ हो।यही अवस्था ज्ञान की पूर्णावस्था और कर्म का निकष कही जाती है।
-उदयराज मिश्र
मण्डल संयोजक,अयोध्या मंडल
राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ,उत्तर प्रदेश
(माध्यमिक संवर्ग)
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