हमेशा सत्य का आचरण करें : आचार्य संदीप

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।

गुरुकुल में चल रहे सार्वदेशिक आर्य वीरांगना दल के राष्ट्रीय शिविर का चौथा दिन।

कुरुक्षेत्र, 19 जून : जीवन में वही लोग उन्नति और सम्मान पाते हैं जो हमेशा सत्य का आचरण करते हैं। उक्त शब्द गुरुकुल कुरुक्षेत्र में चले रहे सार्वदेशिक आर्य वीरांगना दल के राष्ट्रीय शिविर में रोजड़, गुजरात से पधारे वैदिक विद्वान् आचार्य संदीप ने कहे। उन्होंने वीरांगनाओं को जीवन में हमेशा सद्मार्ग पर चलने और यथासंभव दूसरों की सहायता करने के लिए प्रेरित किया। इससे पूर्व शिविर में पहुंचने पर संचालिका व्रतिका आर्या एवं मुख्य संरक्षक संजीव आर्य ने आचार्यश्री का स्वागत किया। बता दें कि गुजरात मे महामहिम राज्यपाल आचार्य श्री देवव्रत जी की प्रेरणा एवं सार्वदेशिक आर्य वीर दल के अध्यक्ष स्वामी डाॅ. देवव्रत सरस्वती जी के मार्गदर्शन में गुरुकुल में यह शिविर चल रहा है जिसमें देश के विभिन्न प्रदेशों की लगभग 400 आर्य वीरांगनाएं प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं।
आचार्य संदीप ने वीरांगनाओं को सम्बोधित करते हुए कहा शिविरों में युवाओं को समाज में फैली बुराइयों को दूर कर नई जाग्रति लाने का पुनीत कार्य किया जा रहा है और यह तभी सार्थक है जब युवा पीढ़ी शिविर की दिनचर्या और लिये गये प्रशिक्षण को अपने जीवन में आत्मसात करें। उन्होंने कहा कि शिविर के तीन मुख्य उद्देश्य हैं- शारीरिक उन्नति, दृढ़ संकल्पी मन और बौद्धिक विकास। उन्होंने कहा कि शिविर के दौरान पूरे मनोयोग से प्रशिक्षण प्राप्त करें, अपने प्रशिक्षकों के प्रति समर्पित हो जाओ तभी आप कुछ बन पाओगे। स्वामी दयानन्द का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि गुरुवर विरजानंद जी से शिक्षा प्राप्ति के दौरान एक बार दयानन्द आश्रम में झाडू लगा रहे थे। संयोग से उसी समय गुरुजी के टहलने का समय था, एक दूसरे ब्रह्मचारी ने कूड़े का ढ़ेर गुरुजी के रास्ते में कर दिया और गुरुजी से शिकायत भी कर दी कि यह दयानन्द ने जानबूझकर किया है। ऐसा सुनकर गुरु विरजानंद जी क्रोधित हो गये और दयानन्द को एक छड़ी लेकर पास बुलाया। दयानन्द के आते ही गुरुजी ने दो-तीन छड़ी दयानन्द के हाथों पर लगाई मगर दयानन्द ने इसका विरोध नहीं किया। पूरे समर्पण भाव से गुरुजी को कहा-गुरुजी! आपका शरीर बहुत कमजोर है, मुझे छड़ी मारते हुए कहीं आपके हाथों में चोट न आ जाए, इसलिए आप ये छड़ी मुझे ही दे दीजिए, मैं स्वयं को सजा दूंगा। गुरु के प्रति ब्रह्मचारियों ने ऐसा ही समर्पण भाव होना चाहिए। अन्त में उन्होंने सभी वीरांगनाओं से शिविर में सीखे गये पूरे प्रशिक्षण को अपने गांव, शहर आदि में जाकर दूसरों को सीखाने का संकल्प दिलाया।

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