अम्बेडकर नगर: परीक्षण:शिक्षण की कसौटी

परीक्षण:शिक्षण की कसौटी

किसी व्यक्ति या विद्यार्थी द्वारा अनौपचारिक,औपचारिक अथवा अन अनौपचारिक ज्ञान प्रदान करने वाले अभिकरणों और केंद्रों द्वारा प्रदत्त अन्यथा कि सीखे गए ज्ञान,कौशल और योग्यताओं के मापन की प्रविधि परीक्षा तथा परीक्षा के आधार पर निष्पत्तियों का अंकीय या ग्रेड आधारित मापन परीक्षण कहलाता है।जिसे मूल्यांकन कहकर भी सम्बोधित किया जाता है।इसप्रकार कहा जा सकता है कि मूल्यांकन ही किसी व्यक्ति की योग्यता निर्धारण करने का प्रधान कारक है।अतः परीक्षण करने वालों का मापन और मूल्यांकन कला में दक्ष होना नितांत आवश्यक है अन्यथा त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन बहुत सी मानसिक व सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का हेतु बन जाता है।
मूल्यांकन की महत्ता का वर्णन करते हुए विद्वानों ने इसे परित:दृष्यति इति परीक्षण: अर्थात जो विद्यार्थियों के चतुर्दिक क्षेत्रों का मूल्यांकन करते हुए श्रेष्ठता का निर्धारण करे वही परीक्षण है।यही कारण है कि समग्र मूल्यांकन के निमित्त मूल्यांकन में होने वाली सम्भावित त्रुटियों के निराकरण हेतु समय समय पर अनेकानेक प्रयास नीतिनिर्माताओं द्वारा व्यवहृत किये जाते हैं किंतु फिर भी किसी एक समुचित प्रणाली का अबतक सर्वमान्य प्रविधि न बन पाना मूल्यांकन के दृष्टिकोण से सदैव खटकता रहता है।इस कमी का निदान कैसे हो यह शिक्षाशास्त्रियों के लिए विचारणीय यक्ष प्रश्न है।
वस्तुतः बाल केंद्रित शिक्षा होने के चलते स्वतंत्रता प्राप्ति से शिक्षा में नित्य एक न एक नए प्रयोग होते रहे हैं।जिससे शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया जहां नवाचारों की भेंट चढ़ गई है तो वहीं मापन व मूल्यांकन की वही पुरानी प्रविधि आज भी प्रयोग में लाई जाती है।जिससे दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों का शुद्धतापूर्वक सही मापन नहीं हो पाता और पूरी मापन प्रक्रिया सदोष हो जाती है।
शिक्षाशास्त्रियों के मुताबिक पहले प्रश्नपत्रों में कुल दिए गए 10 प्रश्नों के सापेक्ष प्रथम अनिवार्य प्रश्न सहित केवल पांच प्रश्नों को ही हल करने की परंपरा थी।इन प्रश्नों को दीर्घ उत्तरीय या विस्तृत उत्तरीय प्रश्न कहा जाता था।हालांकि इन प्रश्नों को हलकरके कमजोर और सामान्य स्तर के भी विद्यार्थी तृतीय व द्वितीय श्रेणियों में उत्तीर्ण हो जाते थे किंतु कुशाग्र और मेधावी विद्यार्थी विस्तृत उत्तरीय प्रश्नों का मूल्यांकन करते हुए परीक्षकों की लापरवाही से बहुधा अपेक्षाकृत कम अंक प्राप्त करते थे।जिससे मेधावी विद्यार्थियों के अंदर मनोभौतिक कुप्रभाव पड़ते थे।लिहाजा उनको नाना प्रकार के अवसादों का शिकार होना पड़ता था।यद्यपि विस्तृत उत्तरीय प्रश्नों का परीक्षण भी औसतन किया जाता है किंतु ये विद्यार्थियों द्वारा हृदयंगम ज्ञान की वास्तविक रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं।इसप्रकार कहना गलत नहीं होगा कि विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सीखे गए ज्ञान कौशल और योग्यताओं की धारणाशक्ति का मूल्यांकन करते हैं।ऐसे प्रश्न विद्वता की पहचान कराने वाले किन्तु परीक्षाओं में कम अंक प्रदान करवाने वाले होते हैं।घटिया लिखावट या बढ़िया लिखावट भी दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के मूल्यांकन को प्रभावित करने वाली घटक होती है।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्नों के मूल्यांकन में परीक्षकों का मध्यमार्गी होना अर्थात औसतन चालीस से 60 प्रतिशत के बीच ही अंक प्रदान करने से कुशाग्र विद्यार्थियों में होने वाली मनोशारीरिक समस्याओं से निजात पाने हेतु सम्प्रति बहुविकल्पीय,अति लघु उत्तरीय,लघु उत्तरीय व दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों का एकसाथ समावेश करते हुए प्रश्नपत्रों का निर्माण किया जाता है।कमोवेश आजकल प्रत्येक बोर्ड व विश्वद्यालयों में परीक्षण की यही विधा प्रचलित भी है किंतु यह भी सर्वमान्य न निर्दोष नहीं कही जा सकती।
वर्तमान में जबकि परीक्षाओं की सुचिता किसी युद्ध से कमतर नहीं रह गयी है तो ऐसे में बहुविकल्पीय,वस्तुनिष्ठ और लघु उत्तरीय प्रश्न यद्यपि मूल्यांकन व अंकीय स्कोर बनाने की दिशा में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं तथापि परीक्षाओं की सारी सुचिता प्रायः इन्ही के चलते तारतार होती है।नकल माफियाओं के लिए धनार्जन के सबसे सस्ते उपाय और साधन यही वस्तुनिष्ठ प्रश्न ही होते हैं।जिन्हें परीक्षाओं के दरम्यान इशारों से,या कम समय मे बोलकर या एकदूसरे की नकल करके हल किया और करवाया जा सकता है।इतना ही नहीं ऐसे प्रश्न रटन्त प्रवृत्ति को भी बढ़ावा देते हैं।वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के आधार पर होने वाली विभिन्न परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने वाले लोगों में भी व्यवहारिक ज्ञान की कमी देखी जाती है,क्योंकि इनको ज्ञान की बजाय रटन्त होकर हल किया जा सकता है।
मूल्यांकन प्रक्रिया मापन की समानार्थक होने के बावजूद एक नहीं है।मापन जहाँ मात्रात्मक होता है तो मूल्यांकन गुणात्मक होता है।दुर्भाग्य से प्रतियोगिताओं व विद्यालयी परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं के मापन को भी मूल्यांकन कहकर ही सम्बोधित किया जाता है,जबकि यह अनुचित है।जबतक अंकपत्रों पर किसी विद्यार्थी या सभी परीक्षार्थियों के पुस्तकीय,क्रीड़ा,सामुदायिक सहभागिता,पाठ्येत्तर क्रियाओं सहित उपस्थिति व अन्य चीजों का मूल्यांकन करते हुए उल्लेख न हो तबतक उत्तर पुस्तिकाओं का परीक्षण मापन ही होगा,मूल्यांकन नहीं।अलबत्ता ज्यादातर लोग तो मापन और मूल्यांकन में भी कोई भेद नहीं जानते हैं।ऐसे लोग जब परीक्षक नियुक्त होते है तो स्थिति और भी बदतर हो जाती है।
विद्यार्थियों की निष्पत्तियों के मूल्यांकन हेतु भिन्न भिन्न बोर्डों द्वारा अलग अलग पद्दतियों को व्यवहृत करना भी यह प्रदर्शित करता है कि देश में आज भी योग्य व प्रतिभावान शिक्षाशास्त्रियों की कमी है।यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड जहाँ ग्रेड आधारित मूल्यांकन करता है तो उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद आज भी अंकीय मूल्यांकन की लकीर की फकीर बनी हुई है।हालांकि हाई स्कूल के अंकपत्रों पर अब अंकों के साथ साथ ग्रेडों का भी उल्लेख होता है किंतु फिर भी समस्या का कोई भी स्थायी समाधान नहीं मिल सका है।इसीप्रकार सीबीएसई द्वारा केवल ग्रेड प्रणाली अपनाते हुए मूल्यांकन करने पर गणित व विज्ञान में शतप्रतिशत सही प्रश्न हल करने पर भी अधिकतम 95 अंक ही प्राप्त होते हैं।जिससे मेधावी विद्यार्थियों के साथ अन्याय होता है।
इसप्रकार कहा जा सकता है कि वर्तमान में प्रचलित अंकीय मूल्यांकन वस्तुतः मापन है।जिसमें परीक्षकों की चैतन्यता,विषयबोध,मनोवृत्ति और स्वभाव का बहुत हदतक प्रभाव पड़ता है।कभी कभी परीक्षार्थियों द्वारा बोर्ड की अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में परीक्षा के समय ही रुपये रख देने से भी मूल्यांकन प्रभावित होता है,यह यथार्थ सत्य है,जोकि बन्द होना चाहिए।शिक्षण की सफलता का निर्धारण परीक्षण ही करता है।अतएव परीक्षकों का दक्ष व उदार होना ही मूल्यांकन की सफलता का रहस्य है।
-उदयराज मिश्र
मूल्यांकन व मापन विशेषज्ञ
अयोध्यामण्डल संयोजक,
राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ,उत्तर प्रदेश
(माध्यमिक संवर्ग)

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