घटते विद्यालयी संसाधन:जिम्मेदार मौन
शिक्षा के औपचारिक अभिकरणों में विद्यालयों की महत्ता आदिकाल से ही प्रतिष्ठापित और कि आज भी जस की तस ही है।भले ही कम्प्यूटर,मोबाइल,दूरदर्शन और अखबार सहित शिक्षा के अन्य उपागम आज समुन्नत दशा में अपने अपने माध्यमों और नवाचारों द्वारा विद्यालयों का पर्याय लेने का प्रयास कर रहे हों किन्तु हकीकत में आज भी जनसामान्य की पहुंच से दूर होने औरकि महंगे होने के कारण विद्यालयों का स्थान कोई भी उपागम नहीं ले सका है।किंतु दुखद पहलू यह है कि ज्ञान के अजस्र स्रोत विद्यालयों के शैक्षिक संसाधनों की तरफ किसी की भी नजर नहीं जाती।जिससे नवाचारों के साथ विद्यार्थियों को प्रदान की जाने वाली शिक्षा दिनोंदिन बदतर होती जा रही है।अतः समाचारपत्रों सहित सभी जिम्मेदार लोगों को मात्र शिक्षकों की कमियां ही नहीं इंगित करनी चाहिए अपितु उन दुष्कर और मुश्किल परिस्थितियों को भी प्रकाश में लाना चाहिए जिनमें रहकर शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन येनकेन कर रहे हैं।इसप्रकार संसाधनविहीनता की स्थिति को भी जिम्मेदार लोगों की नजर में लाना समाचार माध्यमों का प्रथम और गुरुतर दायित्वों में से एक है।कदाचित जिनके निर्वहन में सभी लोग अबतक असफल साबित हुए हैं।
वस्तुतः शिक्षण-अधिगम हेतु उचित परिवेश के सृजन हेतु विद्यालयों में बिल्डिंग,आसान व्यवस्था,प्रकाश,पेयजल,प्रसाधन,चिकित्सा,क्रीड़ा,प्रयोगशाला सहित पाठ्येत्तर क्रियाकलापों हेतु सभी प्रकार के संसाधनों की सहज उपलब्धता आवश्यक है।जिनकी व्यवस्था लोककल्याणकारी राज्य में सरकार और समाज का प्रमुख अनिवार्य दायित्व है।उचित शिक्षण हेतु योग्य एवम प्रतिभावान शिक्षकों की नियुक्ति और उनका समय समय पर सेवाकालीन प्रशिक्षण भी आयोजित किया जाना आवश्यक है।ध्यातव्य है कि सृजित पदों से भी कम पदों पर शिक्षकों की नियुक्ति और संसाधनों के अभाव के चलते एक साथ कई कई कक्षाओं और सरकारी कार्यों का प्रभार देखना किसी भी परिस्थिति में शिक्षकों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है।जिस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता,जोकि सोचनीय प्रश्न है।
प्रश्न जहाँतक नियमों और उपबन्धों का है तो प्राथमिक विद्यालयों में कमसेकम पांच और जूनियर तक आठ तथा माध्यमिक विद्यालयों में प्रतिसेक्शन डेढ़ शिक्षकों की दर से अध्यापकों की नियुक्ति का मानक है।किंतु उत्तर प्रदेश के किसी भी प्राथमिक से लेकर माध्यमिक विद्यालयों में यह मानक पूर्ण नहीं है।महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत कक्षा आठ तक कि शिक्षा सरकारों के जिम्मे है किंतु सरकारें परिषदीय विद्यालयों में लगभग 25000 रुपये प्रतिवर्ष सफाई-पुताई के लिए जहां जारी करती हैं वहीं सहायता प्राप्त विद्यालयों को एक फूटी कौड़ी भी नहीं देतीं,जोकि चिंतनीय है।जबकि सहायताप्राप्त विद्यालयों का दायित्व भी सरकार का ही है।इसीतरह 1986 से अबतक मान्यताप्राप्त वित्तविहीन विद्यालयों को भी सरकारों की तरफ से कोई भी अनुदान न मिलने से यहां जहां एकओर प्रयोगशाला कार्य सिफर होता है वहीं अभिभावकों का दोहन व शिक्षकों का शोषण चरम पर होता है।जिससे दीन हीन दशा में पहुंच चुका शिक्षक कितने मनोयोग से अध्यापन करता होगा,यह चिंतनीय है।
वस्तुतः विद्यालयों की दीन हीन दशा के लिए एक दुखद पहलू अखबारों उदासीन होना भी है।समाचारपत्र महज शिक्षकों तक ही सीमित रहते हैं।शिक्षकों की कमियां अक्षम्य हैं औरकि उनका प्रकाश में आना भी आवश्यक है किन्तु शिक्षक किन विषम परिस्थितियों में दायित्व निर्वहन करते हैं,उनपर भी प्रकाश अखबारों को डालना चाहिए।कदाचित अखबारों की उदासीनता से ही समस्याएं और भी बढ़ती जा रही हैं।अतः अखबारों व समाचार माध्यमों को चाहिए कि वे नियमित विद्यालयों के घटते संसाधनों को भी सुर्खियां बनाएं।जिससे जिम्मेदार लोगों तक सूचनाओं के सम्प्रेषण और तदुपरांत सुधारात्मक तथा उपचारात्मक उपायों को बल मिल सके।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्ष
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