अम्बेडकर नगर: धमकियों के साये में सुचिता का प्रबंध

प्रश्न बहुत ही रोचक और परिस्थितियां बड़ी विकट हैं कि लोकतांत्रिक चुनावों को सर्वोत्तम ढंग से सम्पादित कराने वाले,जनगणना,बाल गणना और आपदा के समय अपना सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले शिक्षक समुदाय और प्रधानाचार्यों की भूमिका क्या परीक्षाओं को लेकर वाकई संदिग्ध है या फिर सरकारी तंत्र अपनी नाकामियों का ढींगरा मातहतों के सिर फोड़ बार बार जेल भेजने की धमकियों से अपने रुआब और लब्बोलुआब का प्रदर्शन करते हुए शिक्षक समाज को तिरस्कृत करने पर उतारू है।बात जो भी हो किन्तु वर्तमान दौर में शिक्षकों व प्रधानाचार्यों को शक की नजर से देखना कदाचित शिक्षा व्यवस्था और आनेवाले दौर के लिए कत्तई उचित नहीं कहे जा सकते।
वस्तुतः इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि परीक्षाओं का आयोजन सुचितापूर्ण माहौल में होना चाहिए।परीक्षाएं ही विद्यार्थियों की प्राप्तियों की मापक और उनकी श्रेष्ठतासूची की निकष होती हैं।जिनका सम्पादन और संचालन तथा उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन शिक्षकों का अधिकार भी है और नैसर्गिक दायित्व भी।कहना अनुचित नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश में सपा की पूर्ववर्ती सरकारों के दौरान परीक्षाओं का आयोजन मजाक बनकर रह गया था।कभी स्वकेंद्र,कभी सपुस्तक तो कभी खुलेआम नकल का कारोबार होना पूर्ववर्ती सपा सरकार की ऐसी घाव है जिसे भरने में आजतक प्रशासन लथर लथर होता दिख रहा है तथा शिक्षक समुदाय तंत्रात्मक त्रुटियों के लिए अधिकारियों के कोपभाजन का शिकार हो आयेदिन मानसिक व्यथाओं का शिकार है।
दरअसल शिक्षा में सुधार विषयक विचार विनिमयों के धरातल से इतर हवाहवाई होने तथा आज भी पारंपरिक शिक्षा की प्रणाली होने से विद्यालयों में जहाँ संसाधन नहीं हैं तो वहीं शिक्षकों और छात्रों का अनुपात भी बुरी तरह प्रभावित है।शिक्षक इन्हीं परिस्थितियों से जूझता हुआ वर्षभर पढाई के साथ -साथ चुनाव कराना,जनगणना कराना और अन्यान्य दायित्वों का भी निर्वहन करते हैं।कितना हास्यास्पद लगता है कि वर्षभर विद्यालयी संसाधनों और शिक्षकों की समस्याओं के बाबत प्रशासनिक अधिकारियों का तनिक भी ध्यान नहीं जाता अपितु इन्हें तो शिक्षकों का केवल वेतन ही दिखाई पड़ता है।कदाचित शिक्षकों को मिलने वाला अपग्रेडेड वेतन की जलन ही इन अधिकारियों के दिलों में ईर्ष्या का मुख्य कारण है।यही कारण है कि परीक्षाओं के दौरान थोड़ा सा सरकारी फरमान पाते ही ये सबसे पहले शिक्षकों का अपमान करने में ही अपना रुआब समझने लगते हैं।
परीक्षाओं की सुचिता का जहाँ तक प्रश्न है तो इसका समर्थन सभी लोग करते हैं।शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति या शिक्षक होगा जो अनुचित साधनों का प्रयोग करना जायज ठहराए।किन्तु बावजूद इसके भी आज शिक्षकों की भूमिका ही शक के दायरे में है,ऐसा क्यों है-यह विचारणीय तथ्य है।
ध्यातव्य है कि परीक्षा केंद्रों के निर्धारण और केंद्र व्यवस्थापकों की नियुक्ति सहित परीक्षा विषयक सभी मामलों में शिक्षकों व प्रधानाचार्यों की कोई भी भूमिका नहीं होती है।स्वयम जिलों के जिलाधिकारी ही अपने तंत्रों की जांच आख्या पर केंद्रों का निर्धारण करते हैं।ऐसे में बदनाम केंद्रों को भी परीक्षाकेन्द्र बनाने का कार्य स्वयम ज़िलोंबके जिलाधिकारी ही करते हैं।जहाँ प्रश्नपत्रों के रखरखाव व परीक्षाओं की सुचिता भंग होने पर उसका खामियाजा सभी प्रधानाचार्यों व शिक्षकों को धमकियों और प्रशासनिक कार्यवाही से भुगतना पड़ता है।इसप्रकार आज की परीक्षा व्यवस्था केंद्र व्यवस्थापकों के लिए बंदर और मदारी का खेल जैसा बनकर रह गयी है।जैसा अधिकारी मदारी बनकर हुक्म देते हैं वैसे ही केंद्र व्यवस्थापक अनुपालन करते हैं।यहां अपनी बुद्धि और विवेक के प्रयोग की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।लिहाजा आज की परीक्षाएं सुचिता के नामपर धमकियों का अंबार कहीं जाएं तो गलत नहीं होगा।
अंततः इतना कहना प्रासङ्गिक होगा कि जिन केंद्रों पर सुचिता प्रभावित हो उनके विरुद्ध कठोरतम कार्यवाई होनी ही चाहिए किन्तु एक सड़ी मछली पूरा तालाब गंदा करती है,यह कहकर सभी शिक्षकों व प्रधानाचार्यों को प्रशासनिक धमकियों से डराना नहीं चाहिये।अधिकारियों को स्मरण रखना चाहिये कि अगर शिक्षक समाज सुचिता नहीं कायम रख पाया तो अधिकारीवर्ग कभी भी किसी सेवा में आने लायक नहीं होगा।आखिर उनकी प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं का भी संचालन तो शिक्षक ही करते हैं।
-उदयराज मिश्र
मण्डल संयोजक,अयोध्यामण्डल
राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ,उत्तर प्रदेश
(माध्यमिक संवर्ग)

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