कोरोना संकट : जीवन, जिविका , सभ्यता , संस्कृति ,सौहार्द्र और मनुष्यता सब कुछ संकट में

कोरोना संकट : जीवन, जिविका , सभ्यता , संस्कृति ,सौहार्द्र और मनुष्यता सब कुछ संकट में-

शहर दर शहर ,गाँव-गिराॅव कस्बे हर जगह कोरोना का बढता कहर जिसने जीवन जीने के तौर-तरीकों को पूरी तरह से बदल रख दिया है। इस
वैश्विक महामारी कोरोना ने आज मनुष्य के जीवन ,जिविका, सभ्यता , संस्कृति, सौहार्द और मनुष्यता सबको खतरे में डाल दिया है। मूल्यों, मर्यादाओं और आदर्शों के रंग में रचे-बसे हमारे देश में इस संकट ने शिष्टाचार और संस्कार के साथ-साथ सहकार, समन्वय, साहचर्य, साझेदारी और सहिष्णुता के भाव-विचार और सामाजिक चलन कलन को भी संकट में डाल दिया हैं । सुख दुःख की घडी में प्रचलित हमारी परम्परागत आपसदारी की परम्परा लगभग विलुप्त होती जा रही है। गले मिलने के त्यौहार होली और ईद के साथ साथ दशहरा दिवाली जैसे त्यौहारों का उल्लास और उत्साह इस संकट ने ठंडा कर दिया । मंदिरो के कपाट बन्द हो गये तथा सामूहिक क्रियाकलापों और भागीदारी वाले सभी प्रकार के धार्मिक और गैर धार्मिक आयोजनों को स्थगित कर दिया गया। इस दौरान राजनीतिक क्रियाकलाप और चुनावी रैलियां इसका अपवाद रहीं। आज इस महामारी ने लोगों की निष्ठुरता को अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया हैं और आज अपने सगे सम्बन्धी भी मृत-शरीर को काॅधा देने से परहेज कर रहे हैं। इसलिए इस बहुआयामी संकट की घड़ी में विषाणुजनित महामारियों से लडने जूझने और मनुष्यता को बचाने के प्रयासो का गहराई से अवलोकन करना आवश्यक है। मनुष्य का विषाणुओं और जीवाणुओं के साथ सकारात्मक और नकारात्मक सम्बन्ध आदिमकाल से रहा है। क्योंकि जीव और जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों और वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार जीवाणु और विषाणु मनुष्य के पूर्ववर्ती है। वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार जल में जीवन की उत्पत्ति हूई और सर्वप्रथम अमीबा, पैरामिशियम, युग्लीना ,क्लेमाइडोनोमास जैसे एककोशकीय सूक्ष्म जीव पैदा हुए इसके उपरान्त विषाणु और जीवाणु उत्पन्न हुए। इस विषाणुओ और जीवाणुओं के साथ मनुष्य आदिमकाल से रहता आ रहा है। इसलिए विषाणुजनित और जीवाणुजनित बिमारियों और महामारियों का इतिहास मनुष्य के धरती पर अवतरण से पहले का है। चूँकि आदिम युग का मानव प्रकृति की गोद में स्वतंत्र विचरण करता था तथा प्रकृति के साथ सीधा और स्वाभाविक जुडाव रखने के कारण उसके अन्दर प्रकृति और जीवाणुओ और विषाणुओं से लडने की अद्भुत शारीरिक शक्ति थी। इसलिए उसे विषाणुओं के हमले का एहसास नहीं होता था या वैज्ञानिक चेतना के अभाव के कारण वायरसों के हमलों के दौरान प्रकट होने वाले लक्षणों को पहचाने में असमर्थ था। विषाणु विज्ञान के अनुसार कुछ विषाणु मनुष्य के लिए लाभदायक होते हैं और कुछ विषाणु मनुष्य के लिए हानिकारक होते हैं जिसमें कुछ तो जानलेवा होते है। मनुष्य के लिए हानिकारक और जानलेवा विषाणु प्रकृति में म्यूटेट होकर नये-नये रूप धारण करते रहते हैं और मनुष्य के लिए और भी प्राणघातक बन जाते हैं। इन्हीं विषाणुओं में से एक कोरोना वायरस आज पूरी दुनिया को अपने गिरफ्त में ले लिया। इसका हमलावर रूप इतना विकराल था कि- विज्ञान और तकनीकी के सर्वोच्च शिखर को स्पर्श करने वाले और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से लैस इटली अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों ने अपने हाथ खडे कर दिए।
वर्ष 2019 के लगभग आखिरी तिमाही में चीन के शहर वुहान से शुरू हुए कोरोना संकट ने पुरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया। विषाणु विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि अभी भी रहस्य बने कोरोना वायरस ने बहुतेरे लोगों की जिंदगी और बहुतेरे लोगों की जीविका छीन ली। भारत जैसे उत्सवधर्मी देश में तो इस नये नवेले विषाणु ने उत्सवों और समारोहो की रौनक छीन ली। जो देश अपने ज्ञान विज्ञान और तकनीकी दक्षता पर इतरा रहे थे वे सारे देश इस वायरस के समक्ष असहाय नजर आ रहे हैं। जीवाणुजनित और विषाणुजनित महामारियों के इतिहास में कोरोना वायरस सबसे घातक और सबसे जानलेवा है। इसने दुनिया के लगभग सभी देशों के आर्थिक और सामाजिक जन जीवन को तहस-नहस करके रख दिया। इस विश्वव्यापी संकट ने विगत शताब्दी में हुए दो विश्व युद्धों से अधिक आर्थिक और मानवीय क्षति पहुंचाई है। इस विश्वव्यापी संकट के दौर में सत्य के असली साधक आर्यभट्ट,चरक ,सुश्रुत ,बीरबल साहनी, मेघनाथ शाहा और ग्रेगर जान मेण्डल के वंशबीज विज्ञान की प्रयोगशालाओं इस वायरस की जन्म कुंडली खंघाल रहे हैं। साथ ही साथ इसकी विनाशक प्रवृत्तियों और जानलेवा चरित्र को जानने का प्रयास करते हुए मानवता को इसके प्रहार से निजात दिलाने का प्रयास कर रहे हैं। सुखद यह है कि- बहुत कम समय में सत्य के सच्चे साधकों वैज्ञानिकों और चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने इसका निदान ढूंढ लिया है। टीकाकरण के जन्म दाता एडवर्ड जेनर के सुयोग्य और होनहार उत्तराधिकारियों को हमें धन्यवाद करना चाहिए कि बहुत कम समय उन्होंने कोरोना के असर को निष्क्रिय और निष्प्रभावी करने का टीका बना लिया। जीवाणुजनित और विषाणुजनित पूर्ववत महामारियों की तरह इसका निदान भी अंततः टीकाकरण है। सरकारों द्वारा त्वरित गति से सम्पूर्ण जनता का टीकाकरण कर लोगों का बेशकीमती जीवन बचाया जा सकता हैं। सरकार के साथ साथ राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को भी अधिक से अधिक लोगों के टीकाकरण का प्रयास करना चाहिए। फरवरी माह से अगर सभी राजनीतिक दलों ने राजनीतिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ठप्प कर टीकाकरण को एकसूत्रीय कार्यक्रम बनाया होता तो आज हालात इतने खराब नहीं होते। कोरोना संकट के दौर में लोगों की जिंदगी बचाना ही सबसे बडी सामाजिक सेवा हैं ईश्वर की सच्ची अर्चना हैं। टीकाकरण के साथ-साथ सरकार को कोरोना वायरस के फैलाव को देखते लगभग पन्द्रह दिनों का सम्पूर्ण लाकडाॅउन करना चाहिए। क्योंकि विषाणुओ का तेजी बढता संक्रमण ही महामारी का स्वरूप धारण करता है। इस लाकडाॅउन का जमीनी स्तर पर ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए। आवश्यक वस्तुओं की होमडिलवरी सुनिश्चित करके आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी के लिए जगह जगह पर होने वाली भीड़-भाड़ को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। आवश्यक वस्तुओं के लिए लगने वाले बाजारों में सर्वाधिक अफरा-तरफी देखीं जा रही है।कोरोना संकट को देखते अपव्ययी और फिजूलखर्ची की प्रवृत्ति का परित्याग कर उत्सव और समारोहों के स्वरूप को सीमित करते हुए अत्यंत सादगी और शालीनता से मनाने की आवश्यकता है। सोशल डिस्टैंसिग को शाब्दिक अर्थ में ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है ।क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी और वह दूसरे मनुष्य से मानसिक और सामाजिक रूप से कभी दूर नहीं हो सकता है। मेरा व्यक्तिगत विचार है कि संक्रमण से बचने के लिए अपनाई जाने वाली दूरी को “शारीरिक दूरी (फिज़िकल डिस्टैंसिग) ” के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। सोशल डिस्टैंसिग के विचार अगर हमने स्थायी रूप से ग्रहण कर लिया तो हजारों वर्षों के सृजनात्मक और रचनात्मक प्रयासों से निर्मित सामाजिक ताने-बाने पर खतरा मंडराने लगेगा। मनुषय ने अपने परिश्रम पराक्रम प्रतिभा खोजी मस्तिष्क और सृजनात्मक बुद्धि के बल हर बडी से समस्याॅ का समाधान किया है तथा हर तरह के संकट से उबरने में सफल रहा है। हर किसी को अपने सीने में हौसला और हिम्मत जिंदा रखने की आवश्यकता है इस दौर का इंसान भी अंततः इस संकट से उबरने में निश्चित रूप से सफल होगा। कोरोना संकट ने मनुष्य को विकास को फिर से परिभाषित करने के लिए विवश कर दिया हैं। पर्यावरण और भावी पीढ़ियों को ध्यान में रखकर विकास के नीतियाँ बनानी होगी। विकास के साथ-साथ इस संकट ने मनुष्य के खान-पान रहन सहन और सम्पूर्ण जीवन शैली पर पुनर्विचार करने के लिए भी विवश कर दिया हैं। बीते डेढ वर्षीय कोरोना कालीन अनुभव से साबित हो गया है कि पकृति के हर रूप के साथ तालमेल और तारतम्य स्थापित कर जीवन जीने वालों पर तथा देशज खान पान अपनाने वालों पर कोरोना वायरस का प्रभाव नाममात्र का रहा है। जबकि कृत्रिम और सुविधाभोगी जीवन शैली अपनाने वाले तथा पैकेजिंग और पैकेटिंग खान पान अपनाने वालों पर कोरोना वायरस का प्रभाव गहरा रहा है। निष्कर्षतः एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता गुरूवर रबिन्द्र नाथ टैगोर का यह विचार प्रासंगिक हो जाता है कि- प्रकृति के मधुर और कर्कश स्वरुप के साथ सहकार और साहचर्य कायम कर जीवन जीने में ही सर्वोच्च आनंद की अनुभूति होती हैं। रबिन्द्र नाथ टैगोर ईट-गारे से बने शिक्षण संस्थानों की जगह प्रकृति के स्वच्छंद और विशाल स्वरूप को वास्तविक शिक्षालय मानते थे।

मनोज कुमार सिंह
बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ ।

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