संस्कारों से होता है संस्कृति का निर्माण : स्वामी डाॅ0 देवव्रत सरस्वती

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर गुरुकुल में आर्य वीरांगनाओं ने जाना योग का वास्तविक स्वरूप।

कुरुक्षेत्र, 21 जून : योग वैदिक संस्कृति और हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग है जिसके वास्तविक स्वरूप का प्रचार होना चाहिए। वर्तमान में लोगों ने योग को अपनी सुविधानुसार केवल कुछ शारीरिक क्रियाओं तक सीमित कर दिया है जबकि हमारे ऋषियों ने अष्टांग योग की विस्तृत और समृद्ध विरासत हमें सौंपी हैं। उक्त शब्द गुरुकुल कुरुक्षेत्र में चल रहे आर्य वीरांगना दल के राष्ट्रीय शिविर में आयीं वीरांगनाओं को 10वें अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सम्बोधित करते हुए आधुनिक युग के द्रोणाचार्य एवं स्वामी रामदेव के पूज्य गुरुदेव स्वामी डा0 देवव्रत सरस्वती ने कहे। उन्होंने कहा कि जीवन में समत्वता आना ही योग है, बड़ी से बड़ी कठिनाई आने पर दुःखी न होना और बहुत बड़ी उपलब्धि पर भी सामान्य बने रहना, योगी का प्रथम लक्षण है। स्वामी जी के मार्गदर्शन में आर्य वीरांगनाओं ने सूर्य नमस्कार, भूमि नमस्कार सहित योग की विभिन्न मुद्राओं का शानदार प्रदर्शन किया। इस अवसर पर गुरुकुल के प्रधान राजकुमार गर्ग, प्राचार्य सूबे प्रताप, व्यवस्थापक रामनिवास आर्य, मुख्य संरक्षक संजीव आर्य, सार्वदेशिक आर्य वीरांगना दल की प्रधान संचालिका बहन व्रतिका आर्या, कोषाध्यक्षा बहन मीनू आर्या, महाशय जयपाल आर्य, वेद प्रचारक मनीराम आर्य सहित अन्य महानुभाव मौजूद रहे। संजीव आर्य ने मंच संचालन करते हुए वीरांगनाओं को योग और वैदिक संस्कृति के इतिहास से रूबरू कराया।
स्वामी देवव्रत सरस्वती ने कहा कि हमारी संस्कृति, योग की संस्कृति है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगिराज श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों ने योग को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाया जिसका परिणाम है कि वे बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी सहज बने रहे। श्री राम चन्द्र का राजतिलक होना था, सब तैयारियां हो चुकी थी, पूरे नगर में हर्षोंल्लास का माहौल था मगर तभी उन्हें पिताश्री द्वारा वनवास जाने का आदेश दिया जाता है। पिताश्री के आदेश की श्री राम हंसते हुए अनुपालना करते है, वे तनिक भी दुःखी नहीं हुए और राजपाट अपने छोटे भाई को सौंपकर वनवास को चले गये, ये है योग की शक्ति। श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में योग-साधना की थी, यही कारण था कि राजतिलक से वनवास जैसी स्थिति होने पर भी वे समुद्र की तरह धीर-गंभीर रहे। उन्होंने कहा कि हमारे जीवन में सुख और शांन्ति केवल योग से ही सम्भव है क्योंकि शास्त्रों में वर्णित है-चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना ही योग है। उन्होंने कहा कि वैदिक संस्कृति में मनुष्य जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष बताया गया है मगर वर्तमान में यह केवल अर्थ और काम तक सीमित हो गया है, धर्म और मोक्ष को भुला दिया गया है। उन्होंने कहा कि प्रातःकाल केवल आधा घंटा योग करने से मन-मस्तिष्क स्वस्थ रहता है, अतः योग को सभी अपनी दिनचर्या में शामिल करें।
बहन व्रतिका आर्या ने कहा कि केवल एक दिन कुछ शारीरिक क्रियाएं करने से योग दिवस का उद्देश्य पूर्ण नहीं होगा। इसके लिए हमें वैदिक संस्कृति और हमारे ऋषियों द्वारा प्रदत्त अष्टांग योग का प्रचार-प्रसार करना होगा, लोगों को योग के सभी आठ नियम-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के बारे में विस्तार से बताना होगा। उन्होंने शिविर में आईं वीरांगनाओं से योग को अपनी दिनचर्या में शामिल करने का संकल्प दिलाया। अंत में महाशय जयपाल आर्य ने ‘‘योग करते रहो, आगे बढ़ते रहो’’ गीत सुनाकर वातावरण को योगमय बना दिया और खूब वीरांगना-ताली बटोरीं।

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