नवसंस्कृति चेतना जगाने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील संस्कृति शिक्षा संस्थान : डॉ. रामेन्द्र सिंह

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।

हमें संस्कृति का वाहक बनना है : वासुदेव प्रजापति।

कुरुक्षेत्र, 26 जून : विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में चल रही संस्कृति बोध परियोजना अखिल भारतीय कार्यशाला में आज के सत्र में मंचासीन विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के अध्यक्ष डॉ. ललित बिहारी गोस्वामी, सचिव वासुदेव प्रजापति, निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह, सं.बो. परियोजना के विषय संयोजक दुर्ग सिंह राजपुरोहित रहे। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान, कुरुक्षेत्र के वर्ष 1984 से शुरू हुए छोटे से सफर से अब तक इस संस्थान के वृहद् स्वरूप को एवं यहां से देशभर में प्रसारित किए जा रहे भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत अनेक आयामों को सबके सम्मुख रखा। इस विकास यात्रा को उन्होंने चित्रावली के माध्यम से जीवंत प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक दृष्टि से कुरुक्षेत्र की पावन धरा का अपना महत्व है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद की ऋचाएं ऋषियों ने यहीं संकलित की थीं। भारतीय ऋषियों ने अपनी आर्ष प्रज्ञा तथा तप साधना से राष्ट्र की सनातन शक्ति जगाने के लिए सतत् प्रयास किया है। भारतीय संस्कृति की इसी आर्ष परम्परा से प्रेरणा लेकर संस्कृति शिक्षा संस्थान सारे देश में देश बोध, समाज बोध, संस्कृति बोध और अध्यात्म बोध जगाने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील है। उन्होंने कहा कि शिक्षा और संस्कार दोनों एक साथ मिलकर भावी पीढ़ी को ठीक प्रकार से संक्रमित करें, उसके लिए इस संस्कृति शिक्षा संस्थान की योजना-रचना हुई है। डॉ. रामेन्द्र सिंह ने बताया कि सांयकालीन सत्र में संस्कृति प्रवाह (सेवा बस्ती, एकल विद्यालय), शुल्क प्रेषण, पुस्तक प्रेषण, प्रश्न पत्र, प्रमाण पत्र, परीक्षा परिणाम ओ.एम.आर. शीट, निबन्ध प्रतियोगिता, चित्र संच एवं संस्थान द्वारा प्रकाशित साहित्य के उपयोग पर विस्तृत जानकारी दी गई।
देशभर से आए प्रतिभागियों का उत्साहवर्द्धन करते हुए संस्थान के सचिव वासुदेव प्रजापति ने कहा कि हम सभी को संस्कृति का वाहक बनना है। धर्म के अनुसार की गई कृति संस्कृति है। यह कहने-सुनने का विषय नहीं है वरन् करणीय विषय है। संस्कृति का विस्तार प्रचार-प्रसार करने से होगा। उन्होंने कहा कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी जीवन दृष्टि होती है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सीखने की जीवन शैली वास्तव में संस्कृति है। आज हम भारतीय संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते जा रहे हैं। इसे छोड़कर सबसे पहले हमें अपने घर तक संस्कृति को ले जाना है। संस्कृति और सभ्यता में सूक्ष्म और स्थूल का अंतर है। संस्कृति निराकार है इसलिए दिखाई नहीं देती, सभ्यता स्थूल है सबको दिखाई देती है। संस्कृति के बिना सभ्यता नहीं होती। उन्होंने आहार और निद्रा समय पर लेने के विशेष लाभ बताते हुए स्पष्ट किया कि आहार शुद्ध होने से सत्व शुद्ध होता है और सत्व शुद्ध होने से स्मृति अटल होती है। उन्होंने कहा कि मातृभाषा संस्कृति का सशक्त वाहक होती है, जिसे आज हम छोड़ते जा रहे हैं।
सं.बो.परियोजना के विषय संयोजक दुर्ग सिंह राजपुरोहित ने संस्कृति बोध के व्याप को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण निर्देश दिए और प्रत्येक प्रांत एवं क्षेत्र से लक्ष्य निर्धारण का विवरण लिया। इसके अतिरिक्त संगठनात्मक संरचना, प्रान्तों में बैठकों का क्रम, सूचना प्रेषण की व्यवस्था इत्यादि पर भी निर्देश दिए। कार्यशाला में जम्मू कश्मीर, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, केरल, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल, तेलंगाना, असम, छत्तीसगढ़, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, सहित अन्य राज्यों के प्रतिभागियों ने भाग लिया। हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा-भाषी प्रतिभागियों के इतर असमिया, तमिल, तेलगु, गुजराती, कन्नड़, मलयालम सहित अन्य भाषाएं बोलने वाले विद्वानों के आगमन से विद्या भारती परिसर ने लघु भारत का रूप लिया।
संस्कृति बोध परियोजना अखिल भारतीय कार्यशाला को संबोधित करते विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह एवं सचिव वासुदेव प्रजापति।
अखिल भारतीय कार्यशाला में उपस्थित देशभर से आए प्रतिभागी।

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