बदलने लगी हैं चुनावी संस्कृति और बदलने लगा है राजनीतिक पहचान कायम करने का तौर-तरीका

बदलने लगी हैं चुनावी संस्कृति और बदलने लगा है राजनीतिक पहचान कायम करने का तौर-तरीका —

परम्परागत रूप से भारतीय राजनीति में जनता का नेतृत्व करने की चाहत रखने वाले अपनी सादगी,साफगोई सचरित्रता, ईमानदारी,कर्मठ्ता और बचनबद्धता जैसे आवश्यक चारित्रिक गुणों के आधार पर जनता के बीच अपनी सामाजिक और राजनीतिक पहचान कायम करने का प्रयास करते रहे हैं।इसके अतिरिक्त भारतीय राजनीति में आमतौर पर राजनेता पूरी लगन निष्ठा और नि:स्वार्थ भावना से आम जनता की सेवा करके या आम आदमी के बुनियादी मुद्दो पर सडक पर निरन्तर संघर्ष करके आम जनता के दिलों में अपनी जगह बनाने का प्रयास करते रहे हैं। परन्तु ये सारे परम्परागत तौर-तरीके चलन-कलन लगभग समाप्त होते जा रहे है। तेजी से बदलते दौर और बुलेट ट्रेन की रफ्तार से हर क्षेत्र में बढती बाजारवादी प्रवृत्तिओं ने चुनावी संस्कृति और राजनीतिक पहचान कायम करने के तौर-तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है। इस बाजारवादी चकाचौंध के दौर में होर्डिग पोस्टर बैनर और विज्ञापन जैसे नये उभरते बाजारवादी उपकरणों और औजारों ने राजनीतिक पहचान कायम करने के पुराने उपायों और औजारों को भोथरा कर दिया हैं और इसका सीधा प्रभाव कुछ ही दिनों में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के होने वाले चुनावों में भी आम तौर पर देखा जा सकता है। जैसे-जैसे चुनावी संस्कृति बाजारवादी रंग-ढंग में रंगने लगी हैं वैसे-वैसे सारे चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। महंगे होते चुनावो ने आम आदमी के निर्वाचित होने के नागरिक अधिकारों को कागजी अधिकारों की श्रेणी में ला दिया है। प्रकारांतर से एक बेहतर राजनेता बनने के लिए आवश्यक न्यूतम चारित्रिक गुणों की महत्ता समाप्त होती जा रही है और उसके स्थान आर्थिक रूप से सम्पन्नता एक राजनेता बनने की आवश्यकता योग्यता हो गई है। राजनेता बनने का नये दौर का यह तरोताजा फार्मूला राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनों की पंचायती राज व्यवस्था में भी सुपरहिट होता जा रहा है।आज महज एक-दो हजार आबादी वाले गाँवो में किसी भी पद पर चुनाव लडने वाले प्रत्याशी भी अब अनिवार्य रूप से धडल्ले से होर्डिग पोस्टर बैनर और विज्ञापन का सहारा ले रहे हैं जबकि गाँवो में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के व्यक्तित्व ,कृतित्व और चरित्र से भली-भांति रूबरू रहता हैं। इस तरह के बाजारवादी उपकरणों और औजारों के दुष्प्रभाव फलस्वरूप ग्रामींण जन-जीवन में सदियों से समाहित सहजता, सरलता, समरसता और गाँवो में परम्परागत रूप से पाया जाने वाला भोलापन समाप्त होता जा रहा है । इसके साथ ही साथ आम जनमानस का प्रत्याशियों से सीधा साक्षात और जिन्दा संवाद लगभग समाप्त होता जा रहा है। हमारे भोले-भाले गांवो में तेजी पाॅव पसारती धन दौलत पर केंद्रित और आश्रित महंगी बाजारवादी चुनावी संस्कृति गाँवों के सच्चे नायकों को चुनावी राजनीति से मीलों दूर कर दिया हैं। विगत दो दशकों में जिस तेजी से विविध क्षेत्रों में बाजार की पहुंच बढी है उसका असर चुनावी राजनीति और चुनावी संस्कृति पर भी गहरे रूप से पडा है। त्याग तपस्या सामाजिक सेवा और सडक के संघर्ष के बल पर नेतृत्व करने की चाहत रखने वाले धीरे-धीरे हाशिए पर जा रहे हैं और आज येन केन प्रकारेण दौलत का साम्राज्य खडा कर रातों-रात पहचान कायम करने का आसान रास्ता होर्डिग पोस्टर बैनर और विज्ञापनों के माध्यम से सम्भव होता जा रहा है । हर डगर हर नगर हर चट्टी चौराहे हर गली कूचे को होर्डिग पोस्टर बैनर से पाटकर और महंगे अखब़ारी विज्ञापनो के आसरे स्काईलैब की तरह अचानक उतरने वाले नेता महज कुछ दिनों में ही आम जनमानस के नेता और आम जनमानस के बीच चर्चा-परिचर्चा का विषय बनते जा रहे हैं । इस नए दौर के नए-नए चुनावी चलन- कलन और धन दौलत केन्द्रित नयी नवेली चुनावी राजनीति और चुनावी संस्कृति ने भारतीय बसुन्धरा पर नायकत्व और नेतृत्व की प्रचलित परिभाषा और नेतृत्व को जाॅचने परखने और पहचानने के पैरामीटरो को उलट-पलट कर रख दिया है।
समाज राष्ट्र और आम जनमानस के लिए अपना सर्वस्व और सर्वोच्च न्योछावर करने वाले ही भारतीय बसुन्धरा पर महानायक की संज्ञा से विभूषित किए जाते रहे हैं। इसलिए भारतीय बसुन्धरा अपने उत्कट त्यागियों, बलिदानियों ,सत्य की साधना में तल्लीन तपस्वियों, संतों,सन्यासियों,ॠषियो,मुनियों और मनीषियों लिए विश्वविख्यात रही हैं। अपने सिद्धांतो वसूलो आदर्शों और सर्वोच्च नैतिक मूल्यों के लिए उत्कट बलिदान देने वाले तथा अडिगता से डटे रहने वालो को जिस भारतीय समाज में अपना रहबर रहनुमा और राजनेता माना जाता रहा है आज उसी बसुन्धरा पर अपराधियों बाबुलियों भ्रस्टाचारियो और छल कपट प्रपंच धूर्तता धोखा फरेब मक्कारी और अन्य बाजारवादी चतुरायियों के बल पर दौतल का विशाल साम्राज्य खडा करने वाले धन पशुओं को हमारा भारतीय समाज अपना रोल मॉडल आइकॉन रहबर रहनुमा और आदर्श राजनेता मानने लगा है। जिस देश में आज से ढाई हजार वर्ष पहले मौसमो और ॠतिओ को ध्यान में रखकर बनाए गए राजमहलों की सारी सुख सुविधाओं और विलासितापूर्ण वस्तुओं का परित्याग कर रोती बिलखती चिखती चिल्लाती चिल्लाती मनुष्यता का दुख दर्द दूर करने के लिए किसी सार्थक सक्षम और कारगर औजार की तलाश में निकल पड़े महात्मा बुद्ध को अपना आदर्श आइकॉन और रोल मॉडल माना जाता रहा है ,आज उसी देश में समाज के अपराधी भ्रस्टाचारी माफिया आदर्श आइकॉन और रोल मॉडल बनते जा रहे हैं।
चुनावों में होर्डिग पोस्टर बैनर के आसरे बढती बाजार वादी संस्कृति और महंगे विज्ञापनों से परिभाषित होते राजनैतिक नेतृत्व के कारण आज आम जनमानस अपने सच्चे नायकों को पहचानने की समझदारी खोता जा रहा है। आम जनमानस की आँख में लगभग धूल झोंकती इस नयी चुनावी संस्कृति से सजग सचेत होकर ही भारतीय लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में जनतांत्रिक बना सकते हैं।

मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ ।

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