शास्त्रों में जहाँ ‘यस्यास्य वित्तम स पुरुष:कुलीन:’ कहकर सर्वत्र अर्थ की प्रधानता की मुक्तकंठ से व्याख्या की गयी है,औरकि अर्थवान गुणहीनों तथा संस्कारहीनों को भी कुलीन कहकर सम्बोधित किया गया है,वहीं जग विश्रुत कवि रसखान द्वारा ‘शिक्षक हो सिगरे जग को,ताको तिय देति है तूँ शिक्षा’कहकर जहाँ शिक्षकों की गुणज्ञता और विद्वत्ता को आदिकाल से प्रतिष्ठापित किया गया है।आज कभी जगतगुरु कहलाने वाले उसी भारत में गुरुओं विशेषकर सरकार द्वारा असहायिक मान्यताप्राप्त विद्यालयों में विद्यादान कर रहे लाखों शिक्षकों के समक्ष परिवार को पालन-पोसने से लेकर स्वयम के अस्तित्व को बचाने का आर्थिक संकट किसी मानवी और प्राकृतिक आपदा से कमतर नहीं है।सरकार और समाज से उपेक्षित तथा प्रबंधतंत्रों द्वारा शोषित वित्तविहीन शिक्षक आज जहाँ मुफलिसी के शिकार हैं वहीं लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर भी प्रश्नचिन्ह हैं।कदाचित शिक्षा के घटिया और सतत गिरते स्तर के लिए कोई और नहीं बल्कि शिक्षकों की दीन हीन आर्थिक व मनोशारीरिक अवस्थाएं ही जिम्मेदार हैं।
द्रष्टव्य है कि 14 अक्टूबर 1986 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा माध्यमिक शिक्षा के साथ-साथ विश्वविद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग के तौर पर मात्र तीन वर्ष के लिए पहले से प्रचलित मान्यता की धारा 7(4) को स्थगित करते हुए धारा 7क(क) अधिनियमित की गयी थी।जिसके अंतर्गत निजी क्षेत्रों के लिए शिक्षा के बाजारीकरण का मार्ग प्रशस्त करना था।दुखद पहलू यह है कि मात्र तीन वर्षों के लिए प्रख्यापित वित्तविहीन शिक्षण व्यवस्था आजतक सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है औरकि शिक्षा के स्तरोन्नयन तथा शिक्षकों के वेतनादि के बाबत अभीतक कोई भी कारगर उपाय न तो किये गए हैं और न ही निकट भविष्य में दृश्यमान ही होते हैं।अलबत्ता 10 सितंबर 2001 में शासन द्वारा असहायिक मान्यताप्राप्त विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों व कार्मिकों की सेवा नियमावली प्रख्यापित करते हुए यह व्यवस्था अवश्य की गई कि वित्तविहीन शिक्षकों को वेतनादि प्रबंधन अपने निजी स्रोतों से करेगा।इस बाबत प्रबंधकों ने बाकायदा शपथपत्र भी दिए।जबकि आजतक एक भी शपथपत्र का अनुपालन कहीं भी नहीं किया गया,जिसे कि स्वयम सरकार और नीतिनियन्ता भी बखूबी जानते हैं।ऐसे में वित्तविहीन शिक्षकों के कल्याण और बेहतर शिक्षण व्यवस्था हेतु इन शिक्षकों पर भी चिंतन नितांत आवश्यक है।
वस्तुतः वित्तविहीन शिक्षकों की व्यथा की पूरी कहानी वित्तविहीन विद्यालयों की मान्यताशर्तों में ही छिपी है।जिसके अंतर्गत कक्षा संचालन की अनुमति परिषद द्वारा तो दी जाती है किंतु प्रधानाचार्य सहित एक भी शिक्षक-कर्मचारी के पद का सृजन नहीं किया जाता है।गौरतलब है कि वित्तविहीन विद्यालयों में प्रबन्धक का पद अवश्य सृजित होने की विधिमान्य परम्परा है,जोकि माध्यमिक शिक्षा अधिनियम की सुसंगत धाराओं के विपरीत है।इसप्रकार जबतक वित्तविहीन मान्यता नियमावली की धारा 7क(क) को विखंडित कर पुनः धारा7(4) नहीं प्राख्यापित की जाती है,तबतक किसी भी प्रकार के पद सृजन की बात करना बेमानी है।हाँ, वर्ष 2016-17 की तरह चुनिंदा शिक्षकों को प्रोत्साहन भत्ते के नामपर चंद सिक्के अवश्य दिए जा सकते हैं,जोकि नाकाफी हैं।
उत्तर-प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो राज्य के लगभग कुल 22000 माध्यमिक विद्यालयों में तकरीबन 16000 विद्यालय वित्तविहीन मान्यता की श्रेणी के अंतर्गत संचालित हैं।जिनमें सामान्य रूप से दो लाख से ज्यादा शिक्षक और कार्मिक अपनी सेवाएं दे रहे हैं।जिन्हें प्रबंधतंत्रों द्वारा पारिश्रमिकके नामपर कभी-कभी जेब खर्च से भी कम राशि दे दी जाती है।जिससे परिवार चलाने की तो बात अलग खुद अकेले अपने का ही भरणपोषण सम्भव नहीं है।ऐसे में उच्चतम न्यायालय के निर्णय”समान काम के आधार पर समान वेतन” का अनुपालन करते हुए शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत शिक्षकों के बेहतर जीवनयापन हेतु केंद्र के समान वेतनादि के भुगतान की भी सम्यक व्यवस्था होनी समय की मांग और स्वस्थ लोकतंत्र की अनिवार्य आवश्यकता है,अन्यथा सरकार,समाज और प्रबंधकों से उपेक्षित तथा शोषित शिक्षकों से योग्य तथा संस्कारवान नागरिकों के निर्माण की संकल्पना फिलहाल साकार होती नहीं दिखती।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
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