” “”आँसू “”
न आँसू हिंदू के होते है,न आँसूं मुस्लिम के होते है
हर जख्म और हर माँ के आँसू एक होते हैं ।
मर्माहत आँसूओ का मर्म महत्व महत्ता और कीमत वही जानते हैं जिनके इरादे नेक होते है।
जख्मी हो ,जज्बाती हो या जमीरी ये आंसू जमीन पर ही टपकते है,
अरमानी हो,रूहानी हो या दिल्लगी के हो ये आंसू आंखों से ही छलकते हैं।
जाति,धर्म,लिंग,बंश ,कुल कुनबा ,गोत्र कुछ भी तो नहीं होता इन बेशकिमती आँसूओं का,
क्षेत्र,इलाका,सरहद,मुल्क मिलकियत और साम्राज्य कुछ भी तो नहीं होता है इन अनमोल आँसूओं का ।
इन आँसूओं की भाषा,अभिलाषा और परिभाषा सिर्फ पागल दिवाने और दिलवाले समझते हैं ।
इन आंसुओं की आगोश में लिपटे भावों और भावनाओं को सिर्फ घायल कलेजे फेफड़े और सीने समझते हैं।
फिर भी दौलत ,रुतबा,रसूख,शोहरत और ओहदे के लिहाज से अलग-अलग रूप रंग के होते हैं आंसू।
सियासी रसूखदारों के आँसू जानते हैं कीमत उजरत वसूलना वोट उगाहना,
परन्तु निरिह लाचार बेबस बेगुनाह आँखो से बेगैरत और बेलज्जत ही बह जाते हैं आँसू ।
गम हो या खुशी, मिलन हो या बिछड़न,
इनकी फितरत है छलक जाना आँखो से,
खून से लथ-पथ लाशो पर भी बहते हैं
आँसू,
घर,आँगन से अलविदा होती बेटी की रूखसती पर भी बहते हैं आँसूं ।
आसमान छूती किसी बुलंदी पर भी अनायास छलक जाते हैं आँसूं,
खुशियाँ उपलब्धियां जब दामन में नहीं समा पाती है तो बरबस ही छलक जाते हैं आंसू,
आहत मर्माहत सीने की मर्मान्तक पीड़ा में भी लहू की तरह निकलते हैं आंसू,
बेशुमार खुशियाँ हो या मर्मान्तक पीड़ा
गंगा जल की तरह निर्मल पवित्र पावन होते हैं आंसू,
क्योंकि-आहो कराहो व्यथाओ वेदनाओं संग दिल की गहराइयों से निकलते हैं आंसू।
फिर भी बेरहम बेशर्म सियासत ने
इसे विभाजित,विखंडित कर दिया,
नये दौर की नयी नवेली चतुराईयो ने रंगहीन आंसुओं को बहुरंगी और बहुरूपिया कर दिया।
आज हिन्दू भी है आँसूं और मुस्लिम भी है आँसूं,
आज जनाना भी है आँसूं,मर्दाना भी है आँसूं,
आज अगडा भी आँसू और पिछड़ा भी है आँसूं ,
आज असली भी है आँसू और नकली भी है आसूँ ।
सियासी मंचों पर वोट की खातिर आज घडियाली भी हैं आंसू ,
और चुनावी समर में रंग बदलता आज गिरगिटियाॅ भी है आंसू।
पर हक-हूकूक की खातिर सजे रण-संग्रामो में हुंकार के साथ जब बहते हैं आंसू,
तब हुकूमत को हिला देने वाले जन सैलाब में बदल जाते हैं आंसू। ।
मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ ।