सरकारी बैंकों के लिए कवच था किसान आंदोलन
आखिर वही होने की सुगबुगाहट होने लगी जिसका कयास लगाया जा रहा था।इधर सिंधु बार्डर पर तने किसानों के तंबू क्या उखड़ने लगे उधर सरकारी बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया परवान चढ़ने लगी।लिहाजा सार्वजनिक क्षेत्र के 12 लाख से अधिक कर्मचारियों को दो दिवसीय राष्ट्रव्यापी हड़ताल करने पर विवश होना पड़ा।कदाचित यह कहना गलत नहीं होगा कि किसान आंदोलन के ही चलते रेलवे और सरकारी बैंक अबतक निजीकरण होने से बचे रहे अन्यथा अबतक कबके सबकेसब विभिन्न व्यापारिक उद्योग घरानों की जेबी हो चुके होते।
बात अगर सरकारी बैंकों और उनसे जुड़ी सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के क्रियान्वयन की की जाये तो सत्य यही है कि सरकारी बैंक ऐसे वित्तीय संस्थान हैं जो मुद्रा के विनिमय के साथ-साथ साख का भी विनिमय करते हैं।जबकि निजी बैंक मात्र मौद्रिक विनिमय ही करते हैं।जिनके दिवालिया होने पर जमाकर्ताओं और निवेशकों के धन की कोई भी सुरक्षा और गारंटी नहीं होती।इसप्रकार निजी क्षेत्र के बैंक भले ही बेहतर सेवा का दावा करें किन्तु सामाजिक सुरक्षा के नाम पर इनका कोई सरोकार नहीं होता।जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का सरकारी फैसला किसी भी स्थिति में जनरंजन और लोककल्याण का निर्णय कत्तई नहीं कहा जा सकता अलबत्ता ये भले ही सरकारों के लिए अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री कहने वाला अवश्य कहा जा सकता है।
गौरतलब है कि भारत में बैंकिंग प्रणाली की शुरुआत का इतिहास 200 वर्षों से भी पुराना है।जबकि 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया ने 1806 में पहली दफा बैंक ऑफ बंगाल,1840 में बैंक ऑफ बॉम्बे और 1843 में बैंक ऑफ मद्रास सहित कुल तीन उपक्रमों की स्थापना की थी।कालांतर में इन्हीं तीनों को मिलाकर इम्पीरियल बैंक का नामकरण करते हुए एकीकृत बैंक की स्थापना हुई।जिसका 1955 में भारतीय स्टेट बैंक नाम से पूर्ण विलय किया गया।इसीप्रकार यदि भारत के प्रथम निजी बैंक की चर्चा की जाय तो इलाहाबाद बैंक ही एकमात्र पहला निजी बैंक था।जबकि1935 में रिजर्ब बैंक की स्थापना के पश्चात पंजाब नेशनल बैंक,बैंक ऑफ इंडिया,केनरा और इंडियन बैंक जैसे 6 अन्य बैंक भी तत्कालीन सरकारों के अधीन संचालित थे।1949 में रिजर्ब बैंक के राष्ट्रीयकरण के पश्चात 1959 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया अधिनियम बनाकर 8 बैंकों,19 जुलाई 1969 को 14 बैंकों तथा 15 अप्रैल 1980 को 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था।जिससे लोकतंत्र की मूल भावना के तहत सभी जमाकर्ताओं को सामाजिक सुरक्षा रूपी कवच प्रदान किया गया था।
उदारीकरण के नामपर सरकारी जिम्मेदारी की इतिश्री और जनमानस को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा को बेंचकर वाहवाही लूटने के क्रम की शुरुआती बीज यद्यपि कॉंग्रेस नीत पूर्ववर्ती सरकारों की देन है किंतु उनमें खाद-पानी डालने का कार्य वर्तमान केंद्र सरकार भी बखूबी कर रही है।यही कारण है कि वित्तमंत्री स्व अरुण जेटली और सम्प्रति पदस्थ निर्मला सीतारमण की निजी उद्यमियों के प्रति अटूट दिखते प्रेम का ही परिणाम है कि बैंकों का आपस में विलय करते हुए आज मात्र 12 बैंक ही बचे हैं जोकि सार्वजनिक क्षेत्र में सङ्घर्ष करते हुए अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।ओरियन्टल बैंक ऑफ कॉमर्स, पंजाब एंड सिंह बैंक,इलाहाबाद बैंक आदि जैसे कितने बैंक अब किताबों के पन्नों में दफन होकर रह गए हैं और जो बचे हैं उनपर भी निजीकरण की तलवार लटकती दिख रही है।स्प्ष्ट है कि खतरा सर पर है और जनता आंख मूंदकर सोने में मशगूल है।
वस्तुतः सरकार की लगभग सभी योजनाएं बैंकों के ही मार्फ़त संचालित होती हैं।इसके अलावा अनपढ़ गंवार से लेकर प्रबुद्ध जनमानस भी निजी बैंकों की अपेक्षा सरकारी बैंकों में लेनदेन को ज्यादा मुफीद और सुरक्षात्मक मानता है।यही कारण है कि सरकारों के इशारे पर संचालित उद्योगपतियों के निजी बैंक जनता को खुलेआम लूट नहीं पा रहे हैं अतएव सरकार पर निजी उद्योगपतियों का दबाव है कि सरकार सरकारी बैंकों को भी हतोत्साहित करती हुई उनकी बोलियां लगाकर निजी क्षेत्रों को बेंच दे,ताकि कोई प्रतिस्पर्धा ही न रहे।इसके बदले में ये सरकारी अधिकारियों,मंत्रियों आदि को ज्यादा से ज्यादा प्रलोभन औरकि शेयर तक देने से बाज नहीं आ रहे हैं।
कहा जाये तो किसान आंदोलन रेलवे और बैंकों के निजीकरण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा था।किसानों के राष्ट्रव्यापी आंदोलन और उनकी नाराजगी के मद्देनजर सरकार खामोश थी क्योंकि उसे किसानों के साथ साथ बैंक कर्मियों के आंदोलन से निपटने में खाशी परेशानी होती।यहाँ यह जिक्र करना दिलचस्प है कि आनेवाले दिनों में निजीकरण को लेकर रेलवे कर्मचारी भी हड़ताल पर चले जाएं तो कोई ताज़्ज़ुब नहीं होगा,क्योंकि अपने आसन्न खतरे का आभास और यहसास उन्हें भी होने लगा है।
कहा जाय तो सरकारी प्रतिष्ठान यथा अस्पताल,विद्यालय,बैंक,बीमा कंपनियां आदि ही नौकरी के क्षेत्र और गरीबों के लिए विश्वासपूर्ण संस्थान हैं।जिनको लेकर साख की कोई भी समस्या कभी नहीं आती क्योंकि अंतिम देनदारी सरकारों का दायित्व होता है।किंतु निजीकरण होने के कारण यह सरकारी दायित्व प्रतिशत तक आ जाता है।जिसके चलते उद्योगपति और अमीर बनते हैं,नेतागण रईस बनते हैं जबकि लुटती है जनता,ठगाती है जनता।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
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