भारतीय दर्शन के वैश्विक व्याख्याता और भारत की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के पथ प्रदर्शक थे राधाकृष्णन–

भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन मूलतःउच्चकोटि के दार्शनिक थे जो दर्शन की आदर्शवादी परम्परा से ओतप्रोत थे तथा अद्वैत वेदांत के प्रतिपादक शंकराचार्य से गहरे रूप से प्रभावित थे। राधाकृष्णन शास्त्रीय दृष्टि से सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांतकार, विचारक और विश्लेषक नहीं थे परन्तु सोवियत संघ के राजनयिक,प्रथम उपराष्ट्रपति और कालांतर में राष्ट्रपति जैसे कूटनीतिक और राजनीतिक उत्तरदायित्वों को बडी कुशलता और सुघडता के साथ सम्पादित किया। अपने राजनीतिक निर्णयों से देश को सशक्त बनाने की दिशा में योगदान देने के साथ-साथ स्वस्थ्य संवैधानिक संस्थाओं परम्पराओं और लोकतंत्र को मजबूत करने का प्रयास किया। एक राष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल मील का पत्थर साबित हुआ क्योंकि-उनके कार्यकाल में ही कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन के मार्गदर्शन में लाखों करोड़ों किसानों ने 1966 में हरित क्रांति का आगाज किया। हरित क्रांति के फलस्वरूप भारत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया। अंग्रेजो ने अपने शासन के दो सौ वर्षों में अपनी निर्मम निर्लज्ज लूट खसोट से भारत के जिस उपजाऊ भूमि को ऊसर बंजर के रूप में तब्दील कर दिया था उस धरती पर हरित क्रांति के कारण फिर से फसलें लहराने लगी। इसके साथ ही साथ जिस देश में लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं होता था उस देश के किसानों ने अपने खून पसीने से इतना अनाज का उत्पादन किया कि-देश के सारे गोदाम भर गये तथा आज कई देशों में शाम को चूल्हे हमारे किसानों की बदौलत जलते हैं। खाद्यान्न की दृष्टि से भारत का आत्मनिर्भर बनना सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
भारतीय समाज में सहिष्णुता और समरसता के प्रयासों के तहत डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सर्वधर्म समभाव का दर्शन प्रस्तुत किया। कुछ विचारकों ने भारतीय दर्शन को निराशावादी, भाग्यवादी और पलायनवादी दर्शन के रूप में निरूपित करने का प्रयास किया। जिसका राधाकृष्णन ने तार्किक प्रतिउत्तर दिया। उनके अनुसार तमाम उतार-चढाव के बावजूद भारतीय जीवन दर्शन में अद्भुत जीवन शक्ति और अपना कायाकल्प करने की महान क्षमता है। इसलिए भारतीय जीवन दर्शन को निराशावादी, पलायनवादी और भाग्यवादी दर्शन समझना पाश्चात्य विचारकों की महान भूल थी। भारतीय दार्शनिक एवम आध्यात्मिक परम्पराओं एक श्रेष्ठ जीवन दर्शन पाया जाता हैं। भारतीय दार्शनिक चिंतनधारा ने महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध,शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जैसे पराक्रमी कर्मयोगियों, महात्मा गांधी जैसी सृजनात्मक साहसी प्रतिभा और रबिन्द्र नाथ टैगोर जैसी साहित्यिक विभूति को पैदा किया। राधाकृष्णन के अनुसार बहुलता और विविधता के मध्य एकता स्थापित करने की अद्भुत क्षमता है। उनके अनुसार परम तत्व का स्वरूप अत्यंत व्यापक है इसलिए इसकी अलग-अलग व्याख्या सम्भव है। इसलिए स्वभावतः भारतीय दार्शनिक परम्परा में सभी प्रकार की साम्प्रदायिक दुर्भावनाओं और कट्टरपंथी असहिष्णुता को परास्त करने की अद्भुत क्षमता है। शंकर के अद्वैत वेदांत में गहरी आस्था रखने के कारण राधाकृष्णन का विश्वास था कि- सम्पूर्ण विश्व परम ब्रह्म की शाश्वत सर्जनशीलता में निहित अनगिनत सम्भावनाओं में से एक का साक्षात्कारण है, इसलिए विश्व में जो कुछ घटित हो रहा है उसके मूल में एक देदिप्यमान आध्यात्मिक प्रयोजन विद्यमान हैं। विश्व ब्रह्म की स्वतंत्र संकल्प शक्ति की अभिव्यक्ति हैं। राधाकृष्णन के अनुसार विश्व को हम एक भ्रमोत्पादक मृगमरीचिका अथवा व्यामोह कह कर नहीं टाल सकते हैं और न उसे अनंत शून्य ही मानकर संतोष कर सकते है। वस्तुतः विश्व के मूल में तथा उसकी प्रक्रिया में ईश्वर की सत्ता निहित हैं।
आज हमारे समाज में सांस्कृतिक प्रदूषण फैलता जा रहा है और भूमंडलीकरण के उपरांत अपसंस्कृति तेजी से पांव पसारती जा रही है तथा हमारे सभ्यता पर भी संकट गहराते जा रहे हैं। ऐसे समय में राधाकृष्णन का सभ्यता पर दिया गया विचार निश्चित रूप से प्रासंगिक हो जाता हैं। गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर की भाॅति राधाकृष्णन का भी विश्वास था कि- सभ्यता की रक्षा के लिए आध्यात्मिक और नैतिक शक्ति की आवश्यकता है। भंयकर चुनौतियां हमारी आधुनिक सभ्यता और संस्कृति के मौलिक ढांचे क्षतविक्षत करने पर अमादा हैं ऐसे समय में एक आध्यात्मिक मानवतावादी नैतिकता ही उसे सर्वनाश से बचा सकती हैं। इन विचारों के कारण ही राधाकृष्णन को भारतीय दर्शन के साथ साथ भारतीय संस्कृति का वैश्विक व्याख्याता माना जाता है। निरंतर बढती असमानता पर राधाकृष्णन के विचार और भी प्रासंगिक हैं। राधाकृष्णन के अनुसार धन दौलत प्राप्त करने की शक्ति सामाजिक दायित्वों के अनुसार होनी चाहिए। अत्यधिक धन को करारोपण द्वारा सीमित किया जाना चाहिए और करारोपण को वह लोकतंत्रीक कदम मानते थे। राधाकृष्णन उच्चकोटि के दार्शनिक के साथ -साथ महान शिक्षाविद एवं शिक्षाशास्त्री थे। आंध्र विश्वविद्यालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे एवं अपने जन्म दिन को गुरु वशिष्ठ, गुरुविश्वामित्र और आचार्य चाणक्य के वंशबीज शिक्षको को समर्पित करने वाले राधाकृष्णन स्वाधीनता उपरांत भारतीय शिक्षा व्यवस्था के वास्तविक शिल्पकार थे। शोध और चिंतन किसी समाज में नवाचार के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। भारत में उच्च शिक्षा के सुधार के लिए बने राधाकृष्णन आयोग के अध्यक्ष की हैसियत राधाकृष्णन की सिफारिश पर ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बनाया गया। विश्व विद्यालय अनुदान विविध क्षेत्रों में उभरते हुए शोधार्थियों को अवसर प्रदान करता है और शोध के लिए प्रोत्साहित करता है। कालान्तर में भारत में शिक्षा व्यवस्था के सुधार के लिए कोठारी आयोग से लेकर जितने भी आयोग बने सभी पर राधाकृष्णन के विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। इसलिए बौद्धिक वर्ग निर्विवाद रूप से डॉक्टर राधाकृष्णन को भारतीय शिक्षा व्यवस्था का पथ प्रदर्शक मानता है।
इसलिए आज सम्पूर्ण देश महान दार्शनिक और महान शिक्षाविद राधाकृष्णन को उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हुए पूरी श्रद्धा से स्मरण कर रहा है।

मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता
बापू स्मारक इंटर कांलेज दरगाह मऊ।

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