“गुरु- शिष्य परंपरा मे शिक्षा और दीक्षा की वास्तविक प्रासंगिकता! “

प्रस्तावना-
“गुरु तो विष्णु समान हैं, गुरु विष्णु एक होय!
विष्णु गुरु एक जानहु, प्रगटत पालत सोय!! “
गुरु शब्द की उत्पति गु+ रु दो शब्दो से मिलकर हुई हैं! गु से तात्पर्य अंधकार, अज्ञान, अंहकार, अज्ञानता, कुमति से लिया जाता हैं, वही रु शब्द का अर्थ प्रकाश, सुमति, से समझा जाता हैं! अर्थात गुरु वह माध्यम हैं, जो अंधकार रूपी बादल आवरण को ज्ञान रूपी प्रकाश से आच्छादित कर देता हैं, कुमति से सुमति के मार्ग को प्रसस्त करता हैं! गुरु के बिना ज्ञान रूपी भेद को जानने की कल्पना भी मात्र जीवन मे नही की जा सकती हैं!
जीवन के प्रारंभिक चरणो से लेकर अंतिम चरण तक जीवन के हर कदम – कदम पर मार्गदर्शन, तथा संबल देने के लिए गुरु तत्व की अत्यंत आवश्यकता महसूस होती हैं.! इस भौतिक पंचतव् शरीर के इस धरा पर अवतरित होने के पश्चात जीवन जीने की कला का ढंग हमे अपने अग्रज रूपी गुरुओ से ही संस्कार के रूप मे प्राप्त होती रहती हैं! इस प्रक्रिया का निर्माण प्राय एक दिन मे नही हो जाता हैं बल्कि यह क्रमश अनवरत चलने वाली लंबी प्रक्रिया हैं, जिसका निर्माण तथा विकास परिवार, गुरु तथा समाज के बीच रहकर तथा उनका अनुसरण करके ही उसे अपने अंदर अंगीकार किया जा सकता हैं!
प्राय जीवन मे दो प्रक्रियाएं क्रमश घटित होती रहती हैं! यह क्रियाएँ जीवन के हर कार्यो मे सम्मलित होती रहती हैं,इनके बिना जीवन का कोई कार्य ही नही संपन्न हो सकता हैं हैं! यह क्रियाएँ जीवन मे तथ्यो को जानने तथा समझने से संबंधित हैं!
सीखना और जानना जीवन की एक अनवरत प्रक्रिया हैं, जो प्राय जन्म से मृत्यु तक बिना रुके चलती रहती हैं!ब्यक्ति जन्म के बाद ही इस धरा पर अवतरित होने के बाद किसी न किसी माध्यम के द्वारा तथ्यो को सीखना तथा जानता चाहता हैं! इस प्रक्रिया मे उम्र, तथा अवस्था कोई मायने नही रखती हैं, साथ ही साथ न ही इसके मापने का कोई विशिष्ट पैमाना हैं! जिससे यह जाना जा सके कि सीखने और जानने की सबसे अच्छी अवस्था क्या हैं! यह जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया हैं! जो जीवन के आरंभिक चरणो से लेकर अंतिम चरण तक चलती रहती हैं! परंतु इन सीखने तथा जानने की प्रक्रिया मे किसी माध्यम का होना अत्यंत जरूरी हैं, बिना माध्यम के इस तथ्य रूपी ज्ञान को जानने की सफल कल्पना आप और हम नही कर सकते हैं! इस प्रक्रिया मे सबसे प्रथम माध्यम बनता हैं परिवार की इकाई,! इस माध्यम के साथ – साथ समाज तथा समुदाय से ब्यक्ति बहुत कुछ हासिल करता हैं! ब्यक्ति के उचित एवं कौशल का विकास मे उसके जीवन मे एक तत्वदर्शी गुरु की अत्यंत महत्ता हैं.! गुरु शिष्य के वर्तमान तथा भावी भविस्य का निर्माता होता हैं जिसके उपर ही उसके भावी जीवन की सफलता की कहानिया निर्भर करती हैं! इस प्रक्रिया के सफल क्रियाविधि मे सबसे पहला बिंदु परिवार होता हैं जहा से इस विशिष्ट प्रक्रिया का जन्म होता हैं!
परिवार समाज की पहली विशिष्ट इकाई हैं, जिस मे पैदा होकर ब्यक्ति सिखता और परिवार, समाज को जानता हैं! इन सीखने की प्रारंभिक चरण प्रक्रिया मे उसका प्रथम गुरु माता- पिता ही होते हैं, जिनसे संस्कारो, विचारों, व्यवहारों, तथा चरित्र निर्माण होता हैं!
इस सांचे मे ढलने के बाद शिष्य को किसी तत्वदर्शी, दुर्दर्शी, गुरु की जरूरत महसूस होने लगती हैं!
कहा ही गया हैं कि-
“बिनु वैराग्य मुक्ति नही, अनुराग भजन नही!
बिनु गुरु मिलत न ज्ञान”!!
अर्थात बिना वैराग्य के न ही मुक्ति मिल सकती हैं और न ही बिना अनुराग के भगवान की भजन भी नही संपन्न हो सकती हैं!ठीक उसी प्रकार बिना गुरु के ज्ञान और विवेक प्राप्ति की अभिलाषा की कल्पना नही की जा सकती हैं.!
अर्थात गुरु ज्ञान हैं, गुरु ध्यान हैं, गुरु जीवन की पहचान हैं, गुरु ज्ञान की ज्योति हैं, गुरु जीवन की मोती हैं, गुरु ज्ञान का प्रकाश हैं, गुरु शिष्य की आश हैं, गुरु जीवन का भाग्य विधाता हैं!
अर्थात जीवन मे जिस प्रकार सीखना और जानना एक ही सिक्के के दो पहलू की महत्वपूर्ण प्रक्रिया हैं, ठीक उसी प्रकार गुरु _शिष्य इस अनवरत प्रक्रिया के वाहक तथा संवाहक हैं! जीवन मे शिक्षा तथा दीक्षा दो प्रक्रिया हैं ! जिस प्रकार किसी जीवन रूपी गाड़ी के सफलता पूर्वक निर्वहन के लिए दो पटरी की आवश्यकता होती हैं, ठीक उसी प्रकार इस मनुष्य रूपी जीवन के सफलता पूर्वक निर्वहन के लिए प्रारंभिक चरण मे ही शिक्षा के साथ -साथ दीक्षा अत्यंत जरूरी हैं.!
शिक्षा तथा विद्या की प्राप्ति के लिए किसी तत्वदर्शी लौकिक गुरु की अत्यंत आवश्यकता होती हैं, गुरु ज्ञान के गूढ़ रहष्यो की गुत्थी को बड़े ही आसानी तरीके से खोलकर शिष्य का ज्ञानवर्धन कर देता हैं-!
अर्थात गुरु उस भिलनी रूपी कीट की तरह हैं जो शिष्य का रूपांतरण करके उसको जीव से ब्रह्म बनाते हैं,! जिस प्रकार एक भिलनी एक कीट को अधमरा करके अपने बिल मे बंद करके बाहर से शब्द का गुंजन करती हैं और उस शब्द के प्रभाव से वह कीट कुछ समय पश्चात उसका रूप और स्वरूप बदल जाता हैं,!ठीक उसी प्रकार जब एक शिष्य जब अपने गुरु के सानिध्य को प्राप्त कर लेता हैं,तो वह उसे शब्द रूपी ज्ञान से उसका रूपांतरण करके जीव से ब्रह्म मे बदल देते हैं.! जीवन मे गुरु प्राय दो प्रकार के होते हैं एक लौकिक गुरु तथा दूसरे परलौकिक गुरु!
लौकिक गुरु ही शिष्य के वर्तमान तथा भविष्य का निर्माता होता हैं! शिक्षा प्राप्ति के बाद जीवन मे दीक्षा भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया हैं! यह भी मानव जीवन की अत्यंत जीवित संस्कार तथा विधा हैं जिसमे शिष्य को ज्ञान देकर द्विज् बनाया जाता हैं! आज भी गुरु -शिष्य परंपरा समाज मे ज्वलंत हो रही हैं !

वर्तमान मे गुरु- शिष्य परंपरा का स्वरूप- वर्तमान परिवेश अत्यंत भयावह हैं, अतीत मे गुरु -शिष्य परंपरा का ऐसा दृश्य था कि तत्वदर्शी गुरु से ज्ञान प्राप्ति के लिए समर्पण का भाव जागृत होता था! परंतु वर्तमान दौर मे दोनो संबंधों मे अत्यंत गिरावट आयी हैं, जिसका दोषरोपण किसी एक पर करना अच्छा प्रतीत नही जान पड़ता हैं! अब समर्पण भाव रूपी शिष्य भी कम ही हैं तो वही दूसरी ओर तत्वदर्शी गुरुओ की संख्या मे कमी भी समाज के लिए अत्यंत चिंताजनक हैं!

लेखक:कल्याण सिंह (गोल्ड मेडेलिस्ट)
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