कुछ तो समझे ख़ुदा करे कोई।*
✨अंजुमन-ए-इस्लामिया पूर्णियां और उलमआ-ए-किराम व दानिश्वरान-ए-एज़ाम की जिम्मेदारियां।✨
▪️पूर्णियां का क़दीम तरीन दीनी, तालीमी व मिल्ली इदारा “अंजुमन-ए-इस्लामिया” बिरादरान-ए-इसलामिया के लिए उनके पुरखों का लगाया हुआ वह बाग़ है जिसके आंगन में हर तरह के पौधों को खिलने और अपनी खू़शबू बखेरने का इख़्तियार हासिल है। जहां बिला तफ़रीक़ मस्लक व मकतब-ए-फिक्र उन सभी लोगों के लिए दीनी, तालीमी, मिल्ली एवं सामाजिक कार्य करने का अवसर प्राप्त है जो शरीअत-ए-इसलामिया के अहकाम का पाबंद हो और जो यहां बिना किसी लोभ व लालच के दीन की खि़दमत करने का जज़्बा रखता हो।
अंजुमन-ए-इस्लामिया के बुनियाद में मिल्लत-ए-वाहिदा की ख़मीर शामिल है, यही वजह है कि अंजुमन के संस्थापकों ने इस के वजूद को आपसी भेद-भाव से पाक रखते हुए इसे एकता की रस्सी से हमेशा बांधे रखा और इसमें किसी प्रकार की फिरक़ा वारियत,इलाक़ा वारियत व जा़त व बिरादरी की तफ़रीक़ और ऊंच-नीच को नापसंद करते हुए मुसलमानों के बीच पाए जाने वाले फेक़ही,गरोही,मस्लकी मकतब-ए-फिक्र के फ़र्क़ व एख्तिलाफ से भी इस अवामी ख़िदमतगार इदारा को मुकम्मल तौर पर बचाए रखा और अंजुमन में मिल्लत-ए-इसलामिया के हर मकतब-ए-फिक्र के बुद्धिजीवीयों व जि़ंदा दिल व्यक्तियों की प्रतिनिधित्व को निश्चित बनाते हुए उनकी योग्यता एवं अनुभव से खूब खूब फायदा उठाया, जिसके नतीजे में अंजुमन-ए-इस्लामिया हर दौर में पूर्णियां के मुसलमानों का सर्वमान्य और सर्वसम्मत प्लेटफार्म के रूप में मुसलमानाने पूर्णियां के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रमुखता से अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। जिसकी छाप आजतक बाक़ी है और जिसके खि़दमात की डोर भी लंबी है ।
बदलते ज़माने और बिगड़ते माहौल के बावजूद भी हमारे बुजुर्गों ने अपने व्यापक सोच और समझ से अंजुमन पर असहमति और अराजकता की छींटें तक नहीं आने दी और न यहां किसी को फितना फैलाने का कभी मौका़ दिया।
मगर अफसोस कि! मिल्लत-ए-इसलामिया के इस गुलिस्तां को किस की नज़र लग गई है, जो पिछले कुछ महीनों से अफरातफरी का शिकार है। सुबह एक कमेटी अंजुमन में चुनाव कराने के लिए खूद को जनसमर्थन का वाहक बताती है, तो शाम को दुसरी कमेटी पहली कमेटी को रद्द करके अंजुमन का चुनाव कराने के लिए अपनी जन समर्थक कमेटी का एलान करती है, एक दिन कुछ लोग किसी एक टीम का हिस्सा होते हैं तो दुसरे दिन वही लोग दुसरी टीम की पहली पंक्ति में खड़े नज़र आ रहे हैं, एक जुमा को मस्जिदों में अंजुमन की सदस्यता अभियान में शामिल होने के लिए अवाम से अपील की जाती है तो दूसरे जुमा को उसी मस्जिद के मेम्बर से पहले होने वाले सदस्यता अभियान को खारिज करने के एलान के साथ नई रसीद के जरिए सदस्य बनने पर जो़र दिया जाता है। सब अपनी अपनी डफ़ली बजा रहे हैं और सबके पास अपने अपने दलाएल हैं। दोनों पक्षों के पास अपनी बात सही ठहराने के लिए दस्तूर-ए- अंजुमन का हवाला भी मौजूद है। ऐसे माहौल में अवाम कंफ्यूज़ होकर रह गई है कि आख़िर कौन अवामी कमेटी है और कौन नहीं! इन्हें समझ नहीं आ रहा है वह किया करें।
अंजुमन के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा है कि ऐसे मायूसकुन हालात पैदा हुए हैं कि मुसलमानों के बीच एकता की दावत देने वाली संगठन की कमेटी के गठन के लिए अनुचित एवं एकता की आवश्यकताओं के विपरीत प्रदर्शन किया जा रहा है। जिससे अंजुमन-ए-इस्लामिया के गरिमा और विश्वसनीयता को ठेस पहुंचने के अलावा अवाम में इसके प्रति निराशा घर कर रही है। अगर उलमआ-ए-किराम, दानिश्वरान और मिल्लत के संजीदा लोगों ने इस मामले का समय से पहले समाधान नहीं निकला तो आशंका है कि आने वाले दिनों में अंजुमन-ए-इस्लामिया में वर्चस्व की यह ज़ुबानी जंग दूसरा रूप ले लेगी। जिससे अंजुमन की बदनामी के साथ अवाम की एकता पर भी असर पड़ने का खतरा है।
(मौलाना) सय्यद तारिक़ अनवर क़ासमी
चेयरमैन: इस्लामिक पीस फॉउंडेशन ऑफ इंडिया