यश-अपयश और श्रेय-प्रेय मानव के कृत्तित्व के अनुरूप उसके व्यक्तित्व के द्योतक होते हैं।कहा गया है कि-
“जो जस करइ सो तस फल चाखा”।इसीप्रकार गांव-देहात में भी एक प्राचीन कहावत मशहूर औरकि प्रायः लोगों द्वारा सुनाई देती है कि-
“बोया पेड़ खजूर का,आम कहाँ से खाय”
इसप्रकार यह प्रतिष्ठापित सत्य है कि व्यक्तित्व निर्माण में हमारे कृत्तित्व का अभूतपूर्व योगदान होता है।व्यक्तित्व पूर्णतया कृत्तित्व का प्रतिफल औरकि यश-अपयश तथा श्रेय-प्रेय का समन्वित रूप होता है।जहाँ श्रेय-प्रेय के चक्कर में व्यक्ति की असफलताएं और अपनों की अनदेखी उसके नैराश्य को जन्म देती हैं।जिससे फासले भी दूरियों में तब्दील खोकर व्यक्ति को व्यक्ति से दूर करते हुए नए सङ्घर्ष का बीज वपन करती हैं।अतः नैराश्य उत्तपन्न करने वाली परिस्थितियां सदा से मनोवैज्ञानिकों के लिए विचारणीय यक्ष प्रश्न रहीं हैं तथा आज भी विचारणीय हैं।
मनोविज्ञान और समाजशास्त्र कदाचित इस बाबत एकमत हैं कि जो कार्य व्यक्ति अपने अनुकूल देखता है,वह उसे प्रिय लगता है।इसीप्रकार हर अनुकूल वस्तु या परिस्थिति मानव को सदैव हितकारी एवम प्रिय लगती रही है।इससे इतर जो वस्तु,व्यक्ति,परिस्थिति या अन्य कोई अपने अनुकूल नहीं होती है,मनुष्य उसे तत्काल परिकूल मानने लगता है।जो वस्तु मानव को अनुकूल लगती है,उसे वह प्राप्त करने की इच्छा करता है।इसप्रकार प्रिय को प्राप्त करने की कामना या इच्छा ही काम कहलाती है।जिसे शास्त्रों में तीसरा पुरुषार्थ कहा गया है।प्रिय की प्राप्ति में बाधक स्थिति क्रोध को जन्म देती है।क्रोध को मानव का सबसे बड़ा शत्रु औरकि आत्महन्ता तक कहा गया है।
वस्तुतः काम और क्रोध दो अलग-अलग नाम होने के बावजूद भी अभिन्न हैं।गीता में लीलाधर श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहे हैं कि-
“काम एषः क्रोध एषः रजोगुण समुद्भव:”
यदि काम और क्रोध दोनों भिन्न भिन्न होते तो यहाँ द्विवचन यथा समुद्भवौ का भी प्रयोग किया गया होता।इसप्रकार यह कहना ही प्रासङ्गिक होगा कि क्रोध काम का ही अपर रूप है,जो प्रिय प्राप्ति की स्थिति में रोड़ा आने पर सहज ही बिना बुलाये उपस्थित हो जाता है और आत्महन्ता साबित होता है।यही कारण है कि क्रोध को आश्रयाश भी कहा जाता है।जिसका अर्थ होता है आश्रय अर्थात शरीर और आश अर्थात भोजन।इसप्रकार क्रोध जिस शरीर में उत्तपन्न होता है,उसी का भोजन करता है।यही कारण है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विद्वानों ने”क्रोधम अक्रोधेन जयेत” का उपदेश दिया है।
प्रश्न उठता है कि काम और क्रोध का श्रेय-प्रेय और नैराश्य से क्या सम्बन्ध है?क्या सब आपस में अन्योन्याश्रित हैं या फिर कोई अन्य कारण है जिससे व्यक्ति नैराश्य का शिकार होता है?यह चिंतनीय प्रश्न है।
यदि देखा जाय तो निराशा शब्द का विलोम आशा होता है।जिसके अभिलाषा,प्रत्याशा और उम्मीद जैसे बहुतेरे पर्यायवाची होते हैं।किंतु अभिलाषा,प्रत्याशा,आशा और उम्मीद परस्पर पर्याय होते हुए भी सूक्ष्मरूप में एक दूसरे से काफी भिन्न होते हैं,जोकि कालांतर में निराशा के रूप में प्रिय की प्राप्ति न होने पर बदलकर स्थायी भाव भग्नाशा या अवसाद को प्राप्त करते हैं।अंग्रेज़ी भाषा में आशा को hope(होप),अभिलाषा को desire(डिजायर) तथा यकीन को हिंदी में विश्वास(trust) कहते हैं।यहाँ यह विचारणीय है कि हरकोई व्यक्ति न तो सबसे आशा कर सकता है और न सबसे उम्मीद ही,हां प्रत्याशा अवश्य उसकी सोच हो सकती है।
प्रश्न जहाँ तक अभिलाषा का है तो यही श्रेय की जननी है।हर व्यक्ति स्वभाव से ही धन, यश,कीर्ति,वैभव,राजसत्ता और परमसुख का अभिलाषी होता है।यथा एक पिता अपने पुत्र की सफलता और तरक्की का अभिलाषी होता है।कदाचित उसकी अभिलाषा में ही भविष्य की निराशा भी अंतर्निहित होती है।बॉलीवुड का एक प्रसिद्ध गीत है-
“तुम्हें सूरज कहूँ या चंदा,चांद कहूँ या तारा।
मेरा नाम करेगा रोशन,जग में मेरा राजदुलारा।।”
यह दृष्टांत यह समझाने के लिए पर्याप्त है कि अभिलाषा ही श्रेय की मूल है।कालांतर में बच्चे के बड़ा होने पर पिता यह उम्मीद करता है कि पढ़-लिखकर उसका बेटा बुढ़ाई की अवस्था में याकि धन कमाने पर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा।बालक जब किसी नौकरी या व्यवसाय में कदम रखता है तो उसके पूर्व उसके सफल होने की आशा हर व्यक्ति औरकि उसके माता-पिता को होती है।कालांतर यह आशा उम्मीद में बदल जाती है और व्यक्ति अपनों पर हद से ज्यादा यकीन करते हुए संकट या परिस्थिति उत्तपन्न होने पर साथ देने का विश्वास कर बैठता है।किंतु जब कोई हृदयस्थ निकटस्थ उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता तो व्यक्ति पहले उदास फिर हताश और अंततः निराश हो जाता है।अब ऐसी परिस्थिति में वह अपने साथ छल औरकि धोखा होने जैसी परिस्थितियों का चिंतन करने लगता है।
निराश व्यक्ति किसी पिजड़े में बन्द असमर्थ शेर जैसा ही होता है,जो चाहकर भी परिस्थितियों को बिगड़ने से नहीं रोक पाता।ऐसी स्थिति में जब उसका प्रिय ही उसके अरमानों पर पानी फेरता है तो वह श्रेय से वंचित महसूस करते हुए अपने प्रेय के प्रति विपरीत तरह से चिंतन करने लगता है।यह चिंतन उसे नैराश्य की गहराइयों में ले जाकर भग्नाशा(फ्रस्टेशन)अर्थात अवसाद के चरम तक पहुंचाते हैं,जहाँ व्यक्ति टूट सा जाता है औरकि उसकी उपलब्धियां और उसके द्वारा अर्जित समस्त प्रकार जे भौतिक सुख भी उसे आनंद की अनुभूति नहीं करा पाते।इसप्रकार श्रेय-प्रेय की राह अन्ततः नैराश्य और अवसाद के संगम पर ही समाप्त होती है।
नैराश्य की स्थिति आत्मघाती होती है।यही कारण है कि गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन अर्थात कर्म करते हुए फल की प्रत्याशा करना ही श्रेय-प्रेय है,जिसकी चिंता या चिंतन व्यक्ति के दुख और निराशा का मूल कारण है।अतएव सभी लोगों को अपने अपने दायित्वों का उचित निर्वहन करते हुए ही महाजनो येन गत:सपंथा का अनुसरण करना चाहिए।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
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