अम्बेडकर नगर:सामाजिक तानेबाने को तोड़ती सोशल इंजीनियरिंग

सामाजिक तानेबाने को तोड़ती सोशल इंजीनियरिंग

गंगा जमुनी तहजीब को अंतर्तम तक समेटे भारतीय समाज आदिकाल से समावेशी रहा है।जिसमें भिन्न भिन्न जातियों,धर्मो और मतों तथा पंथों के अनुयायी एकसाथ मिलजुल रहते रहे हैं।कदाचित जीवन का यही मॉड्यूल भारतीय संस्कृति का जीवंत स्वरूप भी है,किन्तु राजसत्ता की प्राप्ति हेतु राजनैतिक दलों द्वारा सोशल इंजीनियरिंग के नामपर जातीय सम्मेलन कर समाज में जातीयता की भावना और दुराग्रहपूर्ण पूर्वाग्रह का जो बीज वपन किया जा रहा है,वह भले ही राजनैतिक दलों को राजसत्ता की सीढ़ियों तक ले जाता हो किन्तु सामाजिक तानेबाने को तारतार भी कर रहा है।सामाजिक तानेबाने का इसप्रकार जातीय सम्मेलनों के नामपर चुटहिल होना और विघटन की शुरुआत देश की अस्मिता और एकता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है,जिसपर विचार किया जाना सामयिक और लाजिमी भी है।
ध्यातव्य है कि राजनीति सदैव उद्देश्य प्राप्ति हेतु धर्म की आड़ में गोटियां बिछाती रही है किंतु वर्ष 2005 से उत्तर प्रदेश में पहले जातिवार भाईचारा कमेटियों से शुरू अब प्रत्येक राजनैतिक दल की कार्यपद्धति का अंग बन चुकी जाति आधारित राजनीति एकओर जहां सियासतदानों को उनके लक्ष्यों की प्राप्ति का सहज साधन उपलब्ध करवाती जा रही है वहीं सामाजिक तानेबाने में एकदूसरे जाति समूहों के प्रति द्वेष,घृणा,प्रतिकार,प्रतिशोध आदि जैसी अत्यंत घातक कुप्रवृत्तियों को भी बढ़ावा दे रही हैं।जिसके चलते गांव से लेकर शहर तक मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना के शिकार हो एकदूसरे से दूर होते जा रहे हैं।लिहाजा रार और तकरार बढ़ने से दिनोंदिन अपराधों का ग्राफ भी बढ़ता जा रहा है,जोकि राष्ट्रीय अखंडता के लिए अत्यंत दुखद पहलू है।जिसपर अभीतक कोई विचार नहीं हो रहा है।
बात जहाँतक जातीय सम्मेलनों की है तो इसकी औपचारिक शुरुआत का श्रेय उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में बहुजन समाज पार्टी को जाता है।जिसने सतीशचन्द्र मिश्र,स्वामीप्रसाद मौर्य,हीरा ठाकुर आदि नेताओं को आगे कर पहली दफा सोशल इंजीनियरिंग नामदेकर जगह जगह भाईचारा कमेटियों का गठन ही नहीं अपितु पुरजोर सम्मेलन किया।लिहाजा विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर समाजवादी पार्टी और फिर कांग्रेस तथा अब भारतीय जनता पार्टी भी उसी नक्शेकदम पर चल पड़ी है।कोई प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन तो कोई किसी अन्य नाम से जातीय सम्मेलन आयोजित कर 2022 में राजसत्ता की सीढ़ियां चढ़ने की सोच रहा है।किंतु देश और देश की समरसता कहाँ जाएगी,इसपर किसी का कोई ध्यान नहीं है,जोकि दुखद है।
जातीय सम्मेलनों की प्रासंगिकता तब सार्थक होती जब चुनावों से इतर भी ऐसे सम्मेलन आयोजित किये जाते।जिनमें इनके उत्थान,शिक्षा, सेवायोजन, कल्याण आदि के उपायों पर चर्चा होती और सरकार से सुधारात्मक तथा उपचारात्मक निदानार्थ मांग की जातीं किन्तु ऐसा न होकर महज चुनावों के कुछ माह पूर्व ही इन सम्मेलनों का आयोजन सिर्फ और सिर्फ चुनावी हितों को साधने के लिए एक शिगूफा के तौर ओर देखा जाता है,औरकि चुनावों में कटुता के इतने बीज बो दिये जाते हैं कि समाज अगले चुनावों तक आपस में उलझकर लड़ता रहता है।
भारतीय चुनाव आयोग यद्दपि आचार संहिता प्रभावी होने पर विशेष शक्तियों का उपभोग और उपयोग करता है किंतु उसे भी चाहिए कि चुनावी साल में देश की सामाजिक समरसता को छिन्न भिन्न करने वाले आयोजनों पर नजर रखे और तत्सम्बन्धित दिशा निर्देश जारी करे।कदाचित यदि समय रहते इसपर अमल नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब गांव गांव में वैमनस्य की पराकाष्ठा होगी।जिससे आम नागरिक ही सबसे ज्यादा प्रभावित होगा।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
9453433900

Read Article

Share Post

VVNEWS वैशवारा

Leave a Reply

Please rate

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

तिर्वा कन्नौज:धान की फसल देख किसानों के चेहरे पर उदासी

Sun Oct 24 , 2021
वी वी न्यूज़ तिर्वा तहसील संवाददाता अवनीश कुमार तिवारी हसेरन धान की फसल देख किसानों के चेहरे पर उदासी कस्बा हसेरन में तैयार खड़ी धान की फसल की कटाई शुरू हो गई । किसानों ने तैयार खड़ी धान की फसल की कटाई शुरू कर दिए । बेमौसम बरसात हो जाने […]

You May Like

advertisement