हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
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पानीपत : आयुर्वेदिक शास्त्री अस्पताल के संचालक एवं प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डा. महेंद्र शर्मा ने आज श्री परशुराम जन्म महोत्सव पर विशेष चर्चा करते हुए बताया की श्रीमद्भगवतगीता के 15 वें अध्याय का श्लोक है…
ममो वांशे जीव लोके जीवभूता सनातनः…
ईश्वर अंश जीव अविनाशी
मनुष्य जीवन की समस्त पटकथाएं स्वयं ईश्वर ही लिखते हैं। वह स्वयं ही कथानक के नायक खलनायक कारण और परिणाम होते हैं। जीवन के हर कथानक से शिक्षा और मार्गदर्शन लेना चाहिये। भौतिक जीवन के सभी कृत्य किसी के लिये प्रिय और किसी के लिये अप्रिय हो सकते हैं। सभी घटनाओं के कोई न कोई कारण अवश्य होते हैं। उन्होंने कहा की भगवान परशुराम चरितं के दो कथानकों की चर्चा करूंगा जिसमें सहस्त्रबाहु कार्तवीर्यार्जुन की धर्मपत्नी मृणमयि और भगवान शंकर अवतारी श्री हनुमान जी महाराज परशुराम के प्रश्नों के उत्तर में मौन रह जाते हैं। उन्होंने बताया जमदग्नि वध के पश्चात कार्तवीर्यार्जुन की धर्मपत्नी मृण मयी अपने पुत्रों के लिये उनके कुकृत्यों के लिये क्षमा और अभयदान की प्रार्थना लेकर भगवान परशुराम जी के पास जाती हैं, क्योंकि वह ब्राह्मणों की ब्रह्मतेजस्विता से भलीभांति परिचित थी। परशुराम जी का एक ही प्रश्न था कि माते! धर्म का प्रथम लक्षण धृति सहिष्णुता है। जब आपके पुत्रों ने मेरे पिता का सीस धड़ से अलग कर दिया था तो उसके पश्चात पार्थिव देह पर और वार क्यों किये गए। क्या किसी भूखे प्यासे को भोजन करवाना अधर्म या पाप है, क्या किसी भटके हुए व्यक्ति का मार्गदर्शन करना धर्म नहीं है? क्या किसी सेवक से यह प्रश्न करना कि वह स्त्रोत हम को दे दीजिये जिससे तुम ने हमारी सेवा की ? क्या उन स्त्रोतों को बलात लेने की चेष्ठा करना पुण्य है ? यदि इन कुकृत्यों के लिए आपके पति कार्तवीर्यार्जुन और आपके पुत्र हम भृगुवंशी ब्राह्मणों से क्षमा मांगे और इस तरह के जघन्य घटनाक्रमों की पुनरावृत्ति का आश्वासन दें तो भृगुवंशी आपके पति और पुत्रों को क्षमा कर देंगे, लेकिन “राजा परम देवतम्” का राजहठ पूरे क्षत्रिय वंश को ले डूबा। जो और 20 राजा महाराजा कार्तवीर्यार्जुन के समर्थक थे, पाप और अन्याय का साथ देकर परशुराम से द्वन्द्व कर रहे थे किसी का कुछ नहीं बचा। क्षत्रिय आंतकवाद के समूल विनाश के पश्चात जब भगवान परशुराम की मनोर्बुद्धि से क्रोध शान्त नहीं हो रहा था तो शंकरावतारी श्री हनुमान जी महाराज भगवान परशुराम जी को यह समझाते हैं कि बहुत निरापराधी जिनका पापकृत्य से कोई लेना देना नहीं है उनका वध क्यों? यह तो पाप और अन्याय है लेकिन भगवान परशुराम का क्रोध शान्त नहीं हुआ तो इन दोनों में भी युद्ध प्रारम्भ हो गया, धरती आकाश पाताल और जल में युद्ध चला लेकिन कोई निर्णय नहीं हुआ , दोनों शंकरावतारी हनुमान जी और परशुराम थक कर चूर चूर हो गए तो श्री हनुमान जी ने यह विचार किया कि परशुराम जी के क्रोध अनन्त क्यों है जो शान्त नहीं हो रहा। त्रिकालदर्शी करश्री हनुमान जी महाराज ने सम्मोहित करके भगवान परशुराम जी मनोर्बुद्धि में प्रवेश कर कारण को तलाशना प्रारम्भ किया और पूर्वघटित पूरे परिदृश्य को देखा कि किस प्रकार जंगल में परेशान कार्तवीर्यार्जुन के पूरे लावलश्कर की सेवा कर के जीवनदान दिया, किस प्रकार कार्तवीर्यार्जुन ने उस सेवा धर्म का सिला दिया कि ब्राह्मण से कामधेनु ही मांग ली। कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों ने किस प्रकार से महर्षि जमदग्नि का सिर उड़ा दिया, मृणमयी का दृश्य भी देखा कि इतना वीभत्स घटनाक्रम घटित होने के पश्चात परशुराम तो यह कह रहे हैं कि यदि हम ब्राह्मण भृगु वंशियों से कार्तवीर्यार्जुन अपने पुत्रों सहित क्षमा मांग लें और इस तरह के घटनाक्रमों की पुनरावृत्ति न हो का आश्वासन दें तो हम भृगुवंशी उनको क्षमा कर देंगे। क्यों कि ईश्वर ही वेद हैं और वेद ही ईश्वराज्ञा है, वेदाज्ञा यह कहती है…
सेवया धर्म सिद्धिश्च सेवया लभते यश:
सेवया लभते कामान तस्मात सेवा पराभवः।।
सेवा ही धर्म है ,सेवा से ही समस्त सिद्धियों की प्राप्ति होती है और यश की प्राप्ति के समस्त कामनाएं पूर्ण होती है इसलिये सेवा के क्रम जारी रहने चाहिए। यह सरासर सेवा धर्म का उल्लंघन है, यदि सेवा करने वालों के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार होगा तो सेवा कौन करेगा। इस प्रकार की अव्यवस्था को समाप्त करने के लिये भगवान परशुराम का क्रोध अनुचित नहीं था।माता मृण मयी की तरह श्री हनुमान जी भी अनुत्तरित थे कि भगवान परशुराम कहीं भी गलत नहीं थे धर्म की स्थापना के लिए नियमन का पालन तो होना ही चाहिए।
इन प्रकरणों को देखते हुए हम सब को यह सीखना चाहिए किसी भी घटनाक्रम को लेकर कारणों को बिना जाने इतनी जल्दी क्रिया प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करनी चाहिए जैसा कि आजकल देश की राजनीति में चल रहा है कि उस ने ऐसा क्यों किया था ? यह सब तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है। हम को आज की स्थिति सम्भालते हुए अतीत से शिक्षा लेनी चाहिए और भविष्य को संवारना चाहिए। ईश्वर ही सब कथायों के पटनायक हैं, अंगिरस गोत्रीय प्रचेतापुत्र वाल्मीकि जी ने विरह की पराकष्ठा पर रामायण लिखी तो क्रोध की पराकाष्ठा शिवहरि रूप भगवान परशुराम है और सत्य धर्म नियमन की पुनर्स्थापना की पराकष्ठा का चरित्र हैं शंकरावतारी आदिगुरु शंकराचार्य। इन से पूर्व तो हम गाणपत्य शैव्य वैष्णव और शाक्त सनातन धर्मी आपस से लड़ते मरते थे और साथ ही बौद्ध और कापालिकों की हिंसा से त्रस्त था सनातन धर्म। धर्म के पराभव के हिंसा की वर्जना कर राष्ट्र में सार्वभौम आध्यात्मिक अखण्डता के सूत्रधार हैं आद्य गुरु शंकराचार्य जी महाराज।
जब कुछ कथानक प्रश्नों के उत्तर त्रेतायुग में भी श्री हनुमान जी के पास भी नहीं थे तो फिर आज तो कलियुग है इस में तो सम्भावना नगण्य है, बस जीवन में “सेवा” शब्द ही सर्वोत्तम है क्यों कि इसी में ही ईश्वर का वास है, इस का उल्लंघन नहीं होना चाहिये, जिस की स्थापना के लिये ईश्वर प्रकट हो कर सन्तुलन पुनर्स्थापित कर देते हैं।
श्री निवेदन
श्री गुरु शंकराचार्य पदाश्रित
डॉ. महेन्द्र शर्मा “महेश”
9215700495