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कॉन्वेंट की पढ़ाई के साथ यह समस्या है।
बचपन से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वालों का दिमाग अंग्रेजी में सोचता है। जरूरत होने पर जुबान, उसे हिंदी में ट्रांसलेट करके बोलती है।
नेहरू की सारी ग्रेट स्पीच इंग्लिश में है। बड़े से बड़े हिंदी के ज्ञानी को बिठा दीजिए, उनकी “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” या “लाइट हैज गॉन आउट ऑफ अवर लाइफ” स्पीच को ट्रांसलेट करने के लिए।
वो “नियति से साक्षात्कार” जैसे अजीब जुमले गढ़ेगा या “जिंदगी की बत्ती गुल” जैसे मूर्खतापूर्ण अर्थ देगा। तो विचार को, ब्रेन की लैंग्वेज से अन्य भाषा मे, वन गो में कहना हो, अटपटापन आएगा ही।
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राहुल की बात समझनी तो अंग्रेजी में समझिए, मोदी की बात गुजराती में। पर समस्या यह है कि दोनों को हिंदी बोलना मजबूरी है। और दोनों के टँग स्लिप मजाक बनते हैं।
लेकिन एक बाद याद रखिए, मोदी के भाषणों में बार बार तथ्यात्मक गलती मिलती है, वह राहुल के भाषणो में कभी नही। ( ऐसे जो भी वीडियो आये, 100% कटपेस्ट वाले के शरारती प्रयास निकले)
अंग्रेजी में उसकी बात, एकदम साफ सहज और दिल से सीधे निकलते हुए आती है। नॉलेज शार्प है, आप कुछ इकॉनमिस्ट के साथ उनकी चर्चाओं या फॉरेन स्पीच के वीडियो देख सकते हैं।
यह भी मुझे ठीक लगता है, कि वह कई बार रुक कर, सोचकर बोलते है, याने तथ्यात्मक गलती मुंह से बाहर आने के पहले स्कूटनी हो चुकी होती है।
अटल भी कई सही शब्द के लिए बेहद लम्बा पॉज लेते थे। उनका हिंदी शब्द भंडार इतना गहरा था कि अपने ख्याल के लिए वे सबसे बेहतरीन शब्द खोदने में समय लग जाता था।
और कई बार लम्बे पॉज में वो कॉन्टेक्स्ट ही भूल जाते थे। मगर लेकिन इससे उनकी लीडरशिप क्वॉलिटी पर सवाल कभी नही उठे।
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हिंदी पट्टी वाले कह सकते हैं कि भारत का पीएम बनने के लिए हिंदी जानना जरूरी है। उसे सीखना चाहिए।
मैं कहूंगा कि यह तुम्हारी बेकार की दादागिरी है। कंटेंट पर जाओ, मुद्दों पर तौलो,।फिर सलेक्ट या रिजेक्ट करो। देश को हिन्दीविशारद नहीं,अर्टिकुलेट थिंकिंग वाला प्रशासक चाहिए। अर्टिकुलेट थिंकिंग वाले वोटर भी..
वरना ण और ड़ का फर्क न समझने वाला अनपढ़ तो तुमने चुन ही रखा है।