विद्यार्थी को हमेशा देखने और सुनने के प्रति सतर्क रहना चाहिए – श्रीमद्भगवद्गीता

विद्यार्थी को हमेशा देखने और सुनने के प्रति सतर्क रहना चाहिए – श्रीमद्भगवद्गीता।

हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
दूरभाष – 9416191877

मन व्यष्टि चेतना का विषय सापेक्ष प्रथम स्पंदन,जो उसे पहचाने वह बुद्धि मन।
बुद्धि और ह्रदय तीनों के समर्पित होने पर आती है श्रद्धा।
विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में चल रहे श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र कोर्स का तीसरा दिन।

कुरुक्षेत्र, 17 जनवरी : डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने कहा कि विद्यार्थी को हमेशा देखने और सुनने के प्रति सतर्क रहना चाहिए। जो देखेंगे-सुनेंगे उसके प्रभाव से अपने आपको हम बचा नहीं सकते। मन सदैव किसी पक्ष से चिपका हुआ रहता है, मन कभी भी तटस्थ नहीं रहता। जो स्वयं से भी तटस्थ रहे वह बुद्धि है। डॉ. शाश्वतानंद गिरि श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम में दूसरे विषय ‘गीता और शिक्षकत्व’ पर प्रतिभागियों को संबोधित कर रहे थे। इससे पूर्व विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने दूसरे विषय की भूमिका रखी और श्रीमद्भगवद् की कक्षा में प्रत्यक्ष एवं तरंग माध्यम से जुड़े सभी प्रतिभागियों का अभिवादन किया।
डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने आगे कहा कि हमारी बुद्धि श्री कृष्ण तत्व को जानने वाली हो, गीता को समझने वाली हो क्योंकि गीता में ही श्रीकृष्ण हैं, भागवत में ही श्रीकृष्ण हैं और जब श्री कृष्ण जैसा रथी हो, जिसकी इंद्रियां बेदाग हों और उस रथ को चलाने वाले श्री कृष्ण जैसे सारथी हैं तो वह रथ धर्म रथ बन जाता है। और धर्म रथ की पताका का रंग भगवा है जो सबके लिए कल्याणकारी है। जब आप अर्जुन की तरह हों और आपकी बुद्धि में श्रीकृष्ण हों तो फिर आपके धर्म रथ को स्वयं बजरंगबली संभालते हैं। निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति, सकारात्मकता, समर्पण जितने भी सद्गुण मिलें, उन सब को एकत्रित करें तो बजरंगबली निर्मित हो जाएंगे। वे स्वयं ध्वज में बैठे हैं।
उन्होंने कहा कि शिक्षक का पहला काम है शिष्य की स्थिति को समझना। जब कभी हम धर्म के विरुद्ध आचरण करने वाले होते हैं तो हमारे अंदर कुछ नकारात्मक तरंगें उठती हैं। हमारी आत्मा का लक्षण अभय है भय नहीं है। यदि भय की तरंगें उठती हैं तो सामने जो कुछ भी है वह विजातीय है, स्वीकार्य नहीं है। आत्मा का स्वरूप आनंद है दुःख नहीं है। उन्होंने कहा कि यह जीवन बहुत कीमती है और यह जीवन इसीलिए है कि हम इस जीवन में कम से कम सत्य का दर्शन तो कर लें। युद्ध के समय अर्जुन जब अपने ही लोगों के साथ युद्ध करने के लिए युद्ध स्थल पर पहुंचे तो वह शोकग्रस्त हो गए। ऐसे में अर्जुन का शिष्यत्व शिक्षक श्रीकृष्ण ने ही जागृत किया। इसी प्रसंग को इंगित करते हुए उन्होंने कहा कि जो शिष्य के लिए परम कल्याणकारी है वह शिक्षक अपने विद्यार्थी को दे।
मन एवं बुद्धि की व्याख्या करते हुए डॉ. शाश्वतानंद कहते हैं कि मन व्यष्टि चेतना का विषय सापेक्ष प्रथम स्पंदन है। जो उसे पहचाने, वह बुद्धि है, जो उसे एकाकार करे वह अहंकार है और जिसमें यह सब घटता है वह चित्त है। उन्होंने हमारे अंदर व्याप्त दो करणों बाह्य करण और अंतःकरण का उल्लेख करते हुए कहा कि बाह्यकरण में इंद्रियां आती हैं और अंतःकरण में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार हैं। मन सदा ही सुख पसंद करता है। मन की सेना उसकी इंद्रियां हैं। मन अच्छा रूप देखना चाहता है, कान से अच्छे शब्द सुनना चाहता है। मन से जुड़ा हुआ जो व्यष्टित्व है यह ‘मैं’ हूं यही भाव अहंगार (इगो) है। इसमें आत्मभाव नहीं अपितु देहाभिमान रहता है। यही मन जब किसी चीज को पहचानता है तो मन का रूपांतरण हो जाता है, उसी को बुद्धि कहते हैं। बुद्धि अर्थात निर्णयात्मक शक्ति।
उन्होंने कहा कि किसी विषय में मन टिक जाने को आस्था कहते हैं, बुद्धि के टिकने को विश्वास और जब मन, बुद्धि, और ह्रदय तीनों जहां समर्पित हो जाएं उसको श्रद्धा कहते हैं अर्थात जब पूर्ण सत्य की सत्य जैसी स्वीकृति अंतःकरण में सिद्ध हो जाए तो उसे श्रद्धा कहेंगे। दुर्योधन शिष्य है लेकिन वह मन के तल का अर्थात् मनमुखी शिष्य है।
उन्होंने ‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ का अर्थ समझाते हुए कहा कि जो हम चाहते हैं वह है ‘प्रेय’ और जो हमें चाहना चाहिए वह है ‘श्रेय’। हो सकता है कि जो हम चाहते हैं वह चाहना अच्छा ना हो, कुछ उचित ना हो, धर्म संगत न हो। हम जो चाहते हैं वह एक विषय है और हमें क्या चाहना चाहिए यह दूसरा विषय है। इसे उन्होंने आज के समाज की वर्तमान स्थिति, ऊंचे पदों पर पदस्थ लोगों से जोड़ते हुए स्पष्ट किया। जो मन पसंद करता है वह प्रेय है और जो शुद्ध बुद्धि पसंद करती है वह श्रेय है।
डॉ. शाश्वतानंद ने शासन, प्रशासन और अनुशासन शब्दों को स्पष्ट करते हुए कहा कि शासन माने जो नियंत्रित करे, प्रशासन माने जो शासन का सहयोगी होकर समाज में उसे लागू करे और अनुशासन माने अपनी ही मेधा, बुद्धि एवं प्रतिभा से जब हम स्वयं का शासन करते हैं तो उसे अनुशासन कहते हैं। अर्जुन कहता है आप मुझे शासन दें या अनुशासन दें मैं आपकी शरण में हूं। इसे उन्होंने प्रपन्नम के माध्यम से समझाया। प्रपद जो पैर का हिस्सा होता है उसे जो पकड़ ले उसे प्रपन्नम कहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि मैं अपना अहंकार, अपना देहाभिमान अर्पित कर रहा हूं क्योंकि जब तक हम अहंकार से भरे रहेंगे, तब हमारे अंदर कोई ज्ञान, विद्या, कोई शिक्षा प्रवेश नहीं कर सकती। यहीं से विधिवत शिक्षक और शिक्षार्थी स्थापित होते हैं।
विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में चल रहे श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र कोर्स में प्रतिभागियों को संबोधित करते डॉ. शाश्वतानंद गिरि।

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