जालौन:माँ हुल्का देवी की निकाली गई भव्य शोभा यात्रा, हजारों श्रद्धालुओं ने बढ़-चढ़कर लिया हिस्सा,सन 1903 में शुरू हुई थी हुल्का मां की विदाई की परंपरा

*माँ हुल्का देवी की निकाली गई भव्य शोभा यात्रा, हजारों श्रद्धालुओं ने बढ़-चढ़कर लिया हिस्सा,सन 1903 में शुरू हुई थी हुल्का मां की विदाई की परंपरा

,रिपोर्ट-अविनाश शाण्डिल्य कोंच जालौन

महामारी और बीमारियों को दूर भगाने के लिए प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल में होने वाली हुल्का देवी की बड़ी पूजा में शनिवार को जनसैलाब उमड़ पड़ा। कोरोना काल में हजारों की भीड़ के बीच हुल्का देवी की भव्य शोभायात्रा निकाली गई, जो 5 किलो मीटर चलकर ग्राम पड़री स्थित हुल्का देवी के मंदिर पर पहुंची। जहां तांत्रिक अनुष्ठान के बीच देवी पूजा संपन्न हुई।
बुंदेलखंड की प्राचीन लोक परंपराओं में शुमार हुल्का देवी की बड़ी पूजा की शोभायात्रा नगर के मालवीय नगर में स्थित लाला हरदौल के मंदिर से प्रारंभ हुई। लगभग 50 हजार से अधिक श्रद्धालुओं के बीच शोभायात्रा नगर के मुख्य मार्ग से होती हुई देवी मां के जयकारे के साथ आगे बढ़ी। यह शोभा यात्रा भारत माता मंदिर, स्टेट बैंक तिराहा होती हुई सागर चौकी के पास लाला हरदौल के स्थान पर कुछ समय के लिए रुकी। उसके बाद शोभायात्रा रेलवे फाटक मार्कंडेश्वर तिराहा होते हुए पड़री गांव में स्थित हुल्का देवी मंदिर पर पहुंची। जहां धार्मिक और तांत्रिक अनुष्ठान से बड़ी पूजा संपन्न हुई।
कोंच की यह ऐसी लोक परंपरा है जो अब धार्मिक आस्था की पराकाष्ठा पार कर चुकी है। मान्यता है कि यह पूजा नगर व क्षेत्र को महामारी, अकाल और दुर्भिक्ष जैसी आपदाओं से अभय प्रदान करने बाली है। इस पूजा के आयोजन को एक शताब्दी से भी ज्यादा समय हो गया है और आज भी उसी आस्था और विश्वास के साथ ‘और भी’ बड़े रूप में जारी है।
बुंदेलखंड का लोक जीवन भी बड़ा ही विचित्र है, ऐसी ही लोक रीतियों और धार्मिक मान्यताओं के समन्वय से उपजी आस्था का ऐसा रूप है हुल्का देवी की विदाई यानी ‘बड़ी पूजा’ जिसे समूचा नगर बिना किसी जाति भेद या पूजा पद्घति के मनाने के लिये सन्नद्घ रहता है। प्रत्येक तीन बर्ष में आयोजित होने बाले इस धार्मिक अनुष्ठान को लेकर यहां मान्यता है कि मैया क्षेत्र को महामारी, अकाल, दुर्भिक्ष जैसी आपदाओं से बचाती हैं। इस आयोजन के प्रादुर्भाव को लेकर यद्यपि कोई अभिलेखीय साक्ष्य और पुष्ट प्रमाण तो नहीं हैं, लेकिन जिन परिवारों की इसमें शुरुआती सहभागिता रही है उनमें एक परिवार स्थानीय मालवीय नगर बजरिया के स्वर्गीय मुनू रजक का है। उनके पुत्र हरगोविंद के अनुसार सन् 1903 में यहां भयंकर महामारी फैली थी, हालात यह थे कि श्मशान में दो शवों का अंतिम संस्कार संपन्न नहीं हो पाता था तब तक चार शव और वहां पहुंच जाते थे। कस्बे के नागरिक इस महामारी से इतना भयभीत हो गए कि अधिकांश घर खाली हो गए, कुछ ने अपने नाते रिश्तेदारों के यहां शरण ली तो तमाम लोग बाहरी इलाकों में अवस्थित बाग बगीचों में शरण लेने को मजबूर हो गए। इसी बीच बताते हैं कि डाढी नाका स्थित महंतजी के नए बगीचे में नीबू के पेड़ के पास हुल्का देवी ने एक कन्या का रूप धारण कर दर्शन दिए और कहा कि महामारी के डर से कोई भागे नहीं बल्कि उनकी विदाई करे। उसके बाद शिवरानी रायकवार, गंभीरा एवं गेंदारानी पर मैया की पहली सवारी आई और इस तरह ‘बड़ी पूजा’ का आयोजन प्रारंभ हुआ। तीन साल में इस पूजा के आयोजन के पीछे तर्क बताया गया कि उस वक्त लोगों की माली हालत ठीक नहीं थी और हर साल इसका आयोजन कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था, सो हर तीन साल में इसके आयोजन की परंपरा बन गई। कालांतर में मैया की सवारी नईबस्ती में रहने बाली रामरती कुठौंदा बाली एवं धोबिन बऊ के ऊपर भी होने लगी। रामरती के निधन के बाद सवारी उनके दामाद गंगाराम पटेल के ऊपर होने लगी।
तीन सेर वेसन से बनाई जाती है हुल्कादेवी की प्रतिमा
प्रत्येक तीन बर्ष में आयोजित होने बाली बड़ी पूजा में हुल्का मैया की प्रतिमा का निर्माण तीन सेर वेसन से किया जाता है। इसके अलावा हर पूजा में नये वस्त्रों और आभूषणों से उन्हें अलंकृत किया जाता है। लाला हरदौल मंदिर बजरिया में बड़ी पूजा के दिन पहला हौम देकर यात्रा का श्रीगणेश करने बाले जवाहर वर्मा बताते हैं कि मैया के रथ में जो दो बकरे जोते जाते हैं उनका रंग सुर्ख काला होना अनिवार्य है। ऐसे बकरे तलाशने में यद्यपि काफी कठिनाई होती है लेकिन परंपरा के मुताबिक व्यवस्था कर ली जाती है।
तांत्रिक पूजा है हुल्का मैया की विदाई
हुल्का मैया की तीन साल में आयोजित होने वाली बड़ी पूजा अर्थात् मैया की विदाई पूरी तरह से तांत्रिक अनुष्ठान है, इसमें वैदिक रीति नीति का कहीं भी प्रयोग नहीं है। नगर के विद्वान ब्राह्मण पं. लल्लूराम मिश्रा व पं. विनोदकुमार द्विवेदी दरोगाजी बताते हैं यद्यपि यह तांत्रिक अनुष्ठान है और इसके क्रियाकलापों में विप्र समाज या वैदिक रीतियों की कोई भूमिका नहीं है लेकिन हुल्का मैया या लाला हरदौल के प्रति विप्र समुदाय या सनातन धर्मावलंबियों की आस्था कम नहीं हो जाती है। इस बड़ी पूजा के प्रति पूरा नगर आस्थावान है और मैया की असीम कृपा का सदैव आकांक्षी रहता है। बताना समीचीन होगा कि बड़ी पूजा में कोई ऐसा आयाम नहीं है जहां वैदिक परंपरा की उपयोगिता हो, इसके इतर इस पूजा में आद्यंत अनुष्ठानों और परंपराओं में गुनियाओं, ओझाओं, घुल्लों या तांत्रिक क्रियाकलापों के जानकारों की ही भूमिका केंद्र में होती है।
सुदर्शन पाणी दास महंत के यहाँ से बनकर जाती है माँ की विदाई के लिये डलिया
कोंच नगर के महंत सुदर्शन पाणी दास के यहां से मां हुलका की विदाई के लिए डलिया बनाई जाती है, जिसमें वह सब सामान बनाया जाता है, जो लड़की की विदाई में बनाया जाता है। यह डलिया सं 1903 यानी 118 वर्ष से बनाई जा रही है। सुदर्शन पानी दास महंत ने बताया कि उनके दादा द्वारा इस की परंपरा शुरू की गई थी, तब से यह परंपरा लगातार उनके यहां से निभाई जा रही है।

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