हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
संवाददाता थानेसर – वीना गर्ग।
आज अष्टमी व्रत कथा सुनने पढ़ने का बड़ा महात्म्य।
कुरुक्षेत्र 27 दिसंबर :- द्वापर युग में विदर्भ देश के राजा भीष्मक के यहा एक अति सुनंद पुत्री ने जन्म लिया। जन्म कें समय राजा की पुत्री इसती गुणवान व सुनदर लग रही थी मानो साक्षात माता लक्ष्मी ने उसके घर में जन्म लिया है। राजा ने उसका नाम रूक्मिणी रखा। राजकुमारी रूक्मिणी के पांच भाई थे- रूक्म, रूक्मरथ, रूक्मबाहु, रूक्मकेश और रूक्ममाली ।
धीरे-धीरे राजकुमारी रूक्मिणी बड़ी होती गई और उसकी शरीर की सुन्दरता व मुख का तेज और चकमा गया तो उसे सभी लोक लक्ष्मीस्वरूपा मानते थे। रूक्मिणी ज्यादातर अपने पिता भीष्मक के साथ रहती थी। उस समय राजा से कोई भी मिलने आता तो वह श्री कृष्ण जी की प्रशंसा करता और भगवान विष्णु जी की तरह उसके शरीर के गुणगान करते। श्री कृष्ण जी की प्रशंसा सुनकर रूक्मिणी ने मन ही मन में कृष्ण जी का अपने पति रूप में चुन लिया।
किन्तु रूक्मिणी का बड़ा भाई रूक्म अपने खास मित्र चेदिराज शिशुपाल से उसका विवाह कराके अपनी मित्रता को और भी गहरी करना चाहते थे। राजा भीष्मक व उसकी रानी ने अपने पुत्र रूक्म को बहुत समझाया किन्तु वह उनके प्रति जाकर अपने मित्र शिशुपाल से रूक्मिणी का विवाह तय कर दिया। जिसके बाद राजकुमारी रूक्मिणी बहुत दुखी हुई। और कुछ दिनों के बाद शादी की तारीख तय हो गई।
पूरे राज्य में राजकुमारी रूक्मिणी के विवाह की तैयारी होने लगी तब रूक्मिणी ने अपने कुल गुरू को अपना सदेंश दिया और कहा कि हे गुरूदेव आप शीघ्र की द्वारिका नगरी जाइये और हमारा सदेंश भगवान कृष्ण जी को देना। जिसके बाद कुल गुरू द्वारिका नगरी गये और श्री कृष्ण जी को वह सदेंश देते हुए सारा वृत्तात सुना दिया।
कृष्ण जी ने सदेंश को खोलकर पढ़ा तो
राजकुमारी रूक्मिणी ने लिखा हुआ था “हे द्वारीकानंदन मैने आप ही को अपने पति रूप में चुना है और मेंरे बड़े भैया मेरा विवाह उनके परम मित्र शिशुपाल के साथ करना चाहते है किन्तु मैने तो आपको पति रूप में चुना है मैं किसी और से विवाह नहीं कर सकती, कृपा करके मुझे अपने चरणों की दासी स्वीकार करे। यदि आप मुझे अपने पत्नी रूप में रूवीकार नहीं करेगे तो मैं अपने प्राण त्याग दूगी।”
यह पढ़कर कृष्ण जी ने उस कुल गुरू से कहा राजकुमारी से कहना कि वाे राज्य के बाहर हमारी प्रतिक्षा करे।
जिसके बाद कुल गुरू राजकुमारी के पास आया और बोला कि तुम विवाह से पहले गौरी पूजा के लिए राज्य से बाहर मंदिर में जाना, वही आपको श्री कृष्ण जी मिल जाएगे।
उस समय भगवान के पास देवर्षि नारद आऐ और कहने लगे प्रभु अब देरी क्यों कर रहे हो। शीघ्र जाइये और माता रूक्मिणी को ले आइये। और उधर शिशुपाल जरासंध की सेना के साथ बारात लेकर विदर्भ देश पहुच गया है।
विवाह से पहले गिरजा पूजा की पंरम्परा है और उसकी पूजा के लिए राजा व रानी ने रूक्मिणी को राज्य से बाहर गौरी मंदिर में भेज दिया। देवी रूक्मिणी गौरी पूजा करके श्री कृष्ण जी की प्रतीक्षा करने लगी तो देखा की दूर रथ में कृष्ण जी आते दिखाई दिए। वहा पहुचने के बाद रूक्मिणी ने भगवान को प्रणाम किया।
कृष्ण जी ने कहा देरी ना करो प्रिय जल्दी रथ में बैठों हमे शीघ्र ही द्वारिका के लिये निकलना है क्योंकि इस राज्य में जरासंध व शिुशपाल दोनो की सेना है, यह सुनकर राजकुमारी कृष्ण जी के साथ रथ में बैठ गई और द्वारिका के लिए चल दिए। जब यह बात रूक्म व शिशुपाल को पता चली की रूक्मिणी का हरण कृष्ण ने कर लिया और वह उसे अपने साथ द्वारिका ले जा रहा है।
तो अपनी सेना के साथ उनका पीछा करते है किन्तु कोई फाइदा नही होता क्योंकि उनको बहुत देरी हो चुकी थी। इधर कृष्ण जी रूक्मिणी के साथ द्वारिका पहुच गए और द्वारिका नगरी वालो ने उनका भव्य स्वागत किया। जिसके बाद पूरे रिति-रिवाजों के साथ भगवान कृष्ण जी व देवी रूक्मिणी का विवाह हुआ और कृष्ण जी की पहली पत्नी देवी रूक्मिणी कहलाई जो स्वयं माता लक्ष्मी जी का रूप था।