आज़मगढ़:आजमगढ़ का एक ऐसा कस्बा जिसका इतिहास जानने के बाद हर सनातनी गौरवान्वित होगा

*बिजेंन्द्र सिंह की खास रिपोर्ट:

*आजमगढ़ का एक ऐसा कस्बा जिसका इतिहास जानने के बाद हर सनातनी गौरवान्वित होगा।

*रानी के त्याग और सनातन धर्म से प्रेम के बावजूद, इस कस्बे को वह पहचान नहीं मिली, जिसका वह हकदार था।

इतिहास के पन्नों में कस्बा रानी की सराय अपनी पहचान बनाने में सफल रहा। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आजमगढ़ जिले के कम ही लोग इस नाम के बारे में इसके इतिहास के बारे में जानते हो “रानी रत्न ज्योति कुंवर” का नाम याद आने लगता है जिसे इतिहास के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हो, विडंबना देखिए इस कस्बे के साथ उसकी गरिमा के अनुरूप सलूक नहीं हुआ। आज भी इस कस्बे से विकास कोसों दूर है, मगर इस पर अभी तक जिम्मेदारों की नजर नहीं पहुंच सकी। मौजूदा समय में आजमगढ़ जिले के सांसद अखिलेश यादव की सरकार रही हो, या मायावती का शासन किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया और सिर्फ राजनीति की।

अगर शासन व प्रशासन की निगाह कस्बे पर पड़ जाय तो आजमगढ़ की ऐतिहासिकता को एक नया आयाम मिल जाय।

*पत्रिका नामक वेबसाइट के रिपोर्ट के अनुसार-

इतिहास के आइने पर दृष्टिपात करें तो 15वीं सदी में चंद्रसेन नाम के एक राजपूत थे। उनके दो पुत्र सागर सिंह व अभिमन्यु सिंह हुए। अभिमन्यु सिंह मुगल सेना में सिपाही हो गये। उनकी प्रतिभा एवं योग्यता की गूंज सम्राट जहांगीर के दरबार दिल्ली तक पहुंची। उन्हीं दिनों जौनपुर में कई विद्रोह हुए। उन विद्रोह पर काबू पाने के लिए सम्राट ने अभिमन्यु सिंह को लगाया। इसी बीच अभिमन्यु सम्राट के प्रेम से प्रभावित होकर इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के पश्चात अभिमन्यु सिंह अब दौलत खां के नाम से पहचाने जाने लगे।

सम्राट ने जौनपुर के पूर्वी भाग के 22 परगना पुरस्कार में देते हुए उन्हें जागीर बनाया और 1500 घुड़सवारों का सालार बनाकर मेंहनगर राज्य भेज दिया गया। दौलत खां शाहजहां के शासनकाल में एक सम्मानित सिपहचालार थे। लेकिन उनकी मृत्यु के संबंध में कुछ भी पता नहीं है जिसके कारण उन्होंने अपने भतीजे हरिबंश सिंह को गोद ले लिया था। जो अपने चाचा दौलत खां से प्रभावित होकर मुसलमान हो गये। जिसके कारण 1629 में हरिबंश को दौलत खां की जागीर तो मिली ही राजा की पदवी भी मिल गयी। उन्होंने मेंहनगर को अपने राज्य की राजधानी बनाया। उनके दो बेटे गंभीर सिंह व धरनीधर सिंह रहे।

हरिबंश सिंह ने तो इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया परन्तु उनकी धर्मपरायण रानी रत्नज्योति कुंअर उनसे अलग होकर रहने लगी। रानी रत्न ज्योति ने सनातन धर्म को नहीं छोड़ा। स्वाभिमानी व वीरांगना होने के नाते पति से अलग रहते हुए हरिबंश कोट से मेंहनगर जाने वाले रास्ते से 8 किमी दूर सेठवल गांव रानी रत्न ज्योति कुंअर को सुन्दर व प्रिय लगा। रानी ने यहीं पर 52 एकड़ भूमि राजा से मांग लिया और सन् 1629 ई. में स्थानीय कस्बे में पोखरा, हनुमान मंदिर, कुआं व सराय तथा सराय के पीछे एक कुआं पानी पीने के लिए बनवायीं। उपरोक्त स्थान अब रानी की सराय के नाम से जाना जाता है।

आजादी के बाद 1952 में नजूल भूमि यानि रानी की कोई वारिश न होने के कारण शासन द्वारा यह भूमि जिला पंचायत आजमगढ़ को स्थानान्तरित कर दी गयी। स्थानीय कस्बे की सबसे बड़ी खासियत जिसे रानी रत्न ज्योति ने अपने वसीयतनामें में लिखी थी कि स्थानीय कस्बे में कोई भी मस्जिद या इमामबाड़ा नहीं होना चाहिए जिसका आज भी अक्षरशः पालन किया जाता है। यह कस्बा जिले का पहला ऐसा कस्बा है जहां पर मस्जिद नहीं है। इसके बावजूद सभी सम्प्रदाय के लोग काफी प्रेम व्यवहार और मिल जुल कर रहते हैं।

आज से लगभग 11 वर्ष पूर्व कस्बे के समाजसेवी नेता अशोक कुमार गुप्त राजू ने रानी रत्न ज्योति कुंअर सेवा समिति बनायी। रानी रत्न ज्योति कुंअर सेवा समिति बनाते समय राजू को आर्थिक व सामाजिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। संस्था के सभी पदाधिकारी एवं सदस्य के लगन से आज रानी द्वारा बनाये गये सराय जहां पर जिला पंचायत का पूरा कब्जा था वहीं थोड़ी सी जगह पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष विक्रम बहादुर सिंह के सहयोग से संस्था को मिला जहां पर संस्िा द्वारा रानी के नाम से रानी रत्न ज्योति चिल्ड्रेन स्कूल चलाया जाता है।

रानी द्वारा बनवाया गया रानी पोखरा तथा कुंआ ध्यान न दिये जाने के कारण जीर्णशीर्ण होता जा रहा है। गंदगी भी इसकी सुन्दरता पर बट्टा लगाती है। अगर इसके प्रति जिम्मेदारी अधिकारी जागरूक हो जायं तो कस्बे की ऐतिहासिकता की अक्षुणता के साथ यह सुन्दर स्थल में परिवर्तित हो सकता है।

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