गुरु भक्ति और प्रकृति का संबंध अटूट है, गुरु ज्ञान का प्रकाश है और प्रकृति जीवन का आधार:- स्वामी विज्ञानानंद जी

गुरु भक्ति और प्रकृति का संबंध अटूट है, गुरु ज्ञान का प्रकाश है और प्रकृति जीवन का आधार:- स्वामी विज्ञानानंद जी।
संस्थान द्वारा आश्रम में संगत को प्रकृति से जोड़ते हुए पौधे वितरित किए गए।
(पंजाब)फिरोज़पुर 01 जुलाई 2025 [कैलाश शर्मा जिला विशेष संवाददाता]=
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा अपने स्थानीय आश्रम में आश्रम में गुरु भक्ति और प्रकृति को समर्पित विशेष सत्संग कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें संस्थान की ओर से श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्य स्वामी विज्ञानानंद जी ने साधक के गुणों का वर्णन करते हुए कहा कि साधारण व्यक्ति से साधक बनने की यात्रा को तय करना सरल नहीं है लेकिन इस यात्रा को पूर्ण करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव भी नहीं है। स्वामी जी ने एक साधक के गुणों का बहुत सुंदर वर्णन करते हुए कहा कि जो साधना में अपने मन वचन कर्म को साध लेता है वो ही एक सच्चा साधक कहलाता है। साधक संसार में एक साधारण व्यक्ति की तरह ही विचरण करता है लेकिन वह अंतरात्मा से विरक्त और निर्मोही हो जाता है, जिस पर किसी व्यक्ति,वस्तु या परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। साधक कीचड़ में खिले हुए कमल के फूल की तरह रहता है जो पोषण तो कीचड़ से लेता है लेकिन वह सदैव सूर्य की ओर उन्मुख रहता है।एक साधक अपने जीवन में आने वाली कष्टदायक परिस्थितियों को भी अपनी आध्यात्मिक उन्नति की सीढ़ी बना लेता है। पत्थर से मूर्ति बनने की प्रक्रिया पत्थर के लिए कष्टदायक अवश्य होती है लेकिन इस संघर्ष के द्वारा पत्थर के जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार जीवन के संघर्षों को सहते हुए एक साधक निरंतर भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए गुरु आज्ञा के लिए सदैव तत्पर रहता है क्योंकि वह जानता है कि केवल गुरू में ही इतना सामर्थ्य हैं कि वे अपने तपोबल के द्वारा उसके प्रारब्ध एवं संचित कर्मों को काटकर उसकी पीड़ा को कम कर सकते हैं और उसके क्रियामान कर्मों को अपनी आज्ञा के बंधन में बाँध कर सकारात्मक दिशा की ओर प्रवाहित करते हैं। एक साधक जो निरंतर ध्यान साधना के दायरे में स्वयं को बाँध कर रखता है वह धीरे धीरे स्वयं को ऐसा बना लेता है कि उस साधक और साध्य में कोई भेद नहीं रहता।एक भक्त बनने के लिए साधक बनना अति आवश्यक है क्योंकि एक सच्चे साधक के भीतर ही भक्ति पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो सकती है।ब्रह्मज्ञान की साधना के बिना भक्ति प्राणविहीन शव के समान है जिससे केवल सर्वश्रेष्ठ होने का भ्रम और दम्भ रूपी दुर्गंध उठती है। श्रद्धा, विश्वास और समर्पण साधक के सर्वश्रेष्ठ गुण हैं जो उसे भक्ति मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ने एवं उसकी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हैं।मौन व एकांत का सेवन साधक के लिए अति आवश्यक है क्यों कि मौन उसे आध्यात्मिक बल देता है और एकांत में वह साधक स्वाध्याय व आत्ममंथन के द्वारा स्वयं के सुधार से विश्व कल्याण की यात्रा सम्पूर्ण करता है।
स्वामी जी ने साधक की यात्रा को प्रकृति की यात्रा से जोड़ते हुए आज आश्रम के प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए सबको आह्वान किया।
इसी तथ्य के आधार पर आज संस्थान द्वारा पाने संरक्षण प्रकोल के अंतर्गत सारी संगत को पौधे वितरित किए गए।
साथ ही स्वामी जी ने संगत को योगाभ्यास भी करवाया।
गुरु प्रेम और प्रकृति प्रेम को समर्पित कायकर्म का सारी संगत ने खूब आनंद लिया।