फिरोजपुर 18 नवंबर {कैलाश शर्मा जिला विशेष संवाददाता}=
साहिब श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाशोत्सव के अवसर पर दिव्य ज्योति जागृती संस्थान की ओर से साप्ताहिक सत्संग प्रोग्राम का विशेष आयोजन किया गया। जिसमें सर्व आशुतोष महाराज जी की परम शिष्य साध्वी सुश्री हेमवती भारती जी ने संगत को श्री गुरु नानक देव जी के शिक्षाओं पर चलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने संगत को संबोधित करते हुए बताया कि समाज में अंध-परम्पराओं का सघन कोहरा सर्वत्र व्याप्त था। जनजीवन कुरीतियों, कुसंस्कारों एवं मूढ़ विश्वासों से पूर्णतया तमाच्छादित हो चुका था। निरर्थक रूढ़ियों की काली रात में समाज पाषाणवत् सोया पड़ा था। ऐसे तमोमय, जड़ीभूत समाज में एक चिन्मय प्रकाशपुँज उतरा, श्री गुरु नानक देव जी के रूप में। इस प्रकाश के आविर्भाव के साथ ही समाज में एक नवीन अरुणोदय हुआ। वह भी इतना उज्ज्वल कि वर्षों की गहरी निंद्रा में मग्न जनमानस को अन्ततोगत्वा जागना ही पड़ा। यही कारण है कि इस ज्योतिर्मय महापुरुष के प्राकट्य दिवस को आज वर्षोंपरांत भी हम प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं।
श्री गुरु नानक देव जी युगान्तरकारी महापुरुष थे। आज इस शुभ-अवसर पर थोड़ा चिंतन करें कि यह पर्वोत्सव मनाना सही मायनों में कब सार्थक है? क्या केवल भव्य आयोजन, उल्लास भरे बाह्य क्रियाकलाप इसकी विशद गरिमा को संजो सकते हैं? नहीं! जब तक हमने एस दिव्य विभूति के महनीय आदर्शों को अंगीकार नहीं किया, तब तक सब निरर्थक है। जिस शाश्वत ज्ञान के महत् संदेश को श्री नानक देव जी देने आए थे, जब तक उसे जाना, समझा और हृदयस्थ नहीं किया, उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर पग नहीं बढ़ाए, तब तक सब अधूरा है। महापुरुषों के चरणों में हमारा नमन तभी मान्य है, जब उनकी कथनी हमारी करनी में उतर आए। उन्होंने अपने जीवनकाल में घूम-घूमकर चतुर्दिक उदासियाँ लीं। इनके अन्तर्गत उन्होंने तत्समय प्रचलित रूढ़ियों, हठधर्मिता और दुराग्रहों पर प्रभावशाली प्रहार किया।
साध्वी जी ने आगे बताया कि गुरु साहिब के जीवन का एक और प्रसिद्ध आख्यान है जिसमें उन्होंने बड़ी शालीनता से उपासना की यथार्थ विधि को उजागर किया। उन्होंने बखूबी इंगित किया कि उपासना केवल बाह्य नमन या सिजदा नहीं। सच्ची उपासना तो वह है, जहाँ मन उपास्य में लवलीन हो। आत्मा उसकी भक्ति में तन्मय हो। प्रत्येक श्वाँस उसके चिन्तन में अनुरक्त हो। पर अहम् प्रश्न तो यही है कि ऐसी ध्यान-मग्नता लाएँ कहाँ से? ऐसा एकाग्रचित्तता विकसित कैसे हो? गुरु साहिबान ने इस महाप्रश्न का एक ही समाधान दिया कि ‘जिस प्रकार चलायमान पानी एक घड़े में डलकर बंध जाता है। उस प्रकार हमारा अस्थिर मन ब्रह्मज्ञान द्वारा स्थिर हो जाता है। यह ब्रह्मज्ञान केवल एक पूर्ण गुरु द्वारा ही प्राप्य है।’ वस्तुतः होता यह है कि सतगुरु जब ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं, तो जिज्ञासु के अंतर्जगत का कपाट खुल जाता है। फिर वह अपने इस आंतरिक लोक में अनन्त दिव्य नजारे स्पष्ट देखता है। ईश्वर के अलौकिक रूप का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है। यह हर युग, हर काल का एक अटल सत्य रहा है और रहेगा।अंत में साध्वी रमन भारती जी की ओर से शब्द कीर्तन गायन किया गया।