शिक्षाधिकारियों में घटती संवेदनशीलता
शिक्षा को सभी उद्योगों की जननी,शिक्षकों को राष्ट्रनिर्माता और शिक्षाधिकारियों को राष्ट्रीय शिक्षानीति को विद्यालयों में क्रियान्वित करवाने का मुख्य कारक माना जाता है।शिक्षाधिकारी ही योजनाओं के क्रियान्वयन,अनुश्रवण,पर्यवेक्षण,संरक्षण,अनुरक्षण और उचित-अनुचित में विभेदन करते हुए मानवीय मूल्यों के आईने में माध्यमिक व बेसिक शिक्षा अधिनियमों के आलोक में सभी प्रकार की शैक्षिक व पाठ्येत्तर गतिविधियों के मुख्य संयोजक भी होते हैं।जिससे बाल केंद्रित शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थियों के शिक्षण-अधिगम सहित सभी प्रकार की सामाजिक,आर्थिक व अन्य प्रकार की समस्याओं को निराकृत करते हुए योग्य नागरिकों के निर्माण की संकल्पना सफलीभूत होती है,किन्तु शिक्षाधिकारियों में दिनोंदिन बढ़ती लालच,अधिनियमों की अल्पज्ञता और कम समय में येन केन अधिक धन कमाने की प्रवृत्ति से पिछले कुछ दशकों से जिस तरह से संवेदनशीलता का ह्रास हुआ है,उसे देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि शिक्षाधिकारियों का बड़ा वर्ग अपने मूल दायित्वों से दिग्भ्रमित होकर केवल तानाशाही और मनमानेपन का हमराह होता जा रहा है।जिससे विद्यार्थियों,शिक्षकों व अभिभावकों में बढ़ता उहापोह शिक्षा स्तर को प्रभावित करता दिख रहा है।कदाचित यह स्थिति अत्यंत ही सोचनीय व विचारणीय यक्ष प्रश्न है।
वास्तव में यदि देखा जाए तो नब्बे के दशकतक प्रत्येक शिक्षाधिकारी स्वयम में एक शिक्षाशास्त्री भी होता था।उन्हें बाल मनोविज्ञान,सामाजिक स्थिति,विद्यार्थियों व शिक्षकों की समस्याएं,संसाधनों की जानकारी व शासकीय नियमों का ज्ञान सदैव कंठस्थ व हृदयस्थ रहता था।यही कारण है कि उस समय न्यायालयी प्रकरणों की संख्या भी आज के मुकाबले न के बराबर थी।कहीं कहीं इक्का दुक्का प्रकरणों के अलावा कोई भी मामले नहीं होते थे औरकि अगर कोई कानूनी अड़चन आती थी तो वे शासन व विभाग से परामर्श मांगते हुए निर्धारित समयावधि में समाधान करते थे।किंतु पिछले तीन दशकों में जिस तेजी से शिक्षा स्तर और मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है उसकी तुलना में शिक्षाविभाग का वैचारिक अवमूल्यन व नैतिक पतन कई गुना हुआ है।लिहाजा आज के शिक्षाधिकारी प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर भले ही राजकीय विद्यालयों में प्रधानाचार्य,या बेसिक शिक्षाधिकारी या जिला विद्यालय निरीक्षक आदि पदों पर आसीन हो जाएं किन्तु सत्य तो यही है कि शिक्षा अधिनियमों की जानकारी उन्हें प्राइमरी स्तर की भी नहीं होती है।हाँ, इतना जरूर है कि प्रदेश के 75 जनपदों में से तकरीबन 10 से 12 जनपद ऐसे अवश्य हैं जहाँ के जिला विद्यालय निरीक्षक या फिर बेसिक शिक्षाधिकारी याकि दोनों ही बेहद संजीदा और नियमों कानूनों के जानकार होने के साथ ही साथ मानवीय गुणों से भी भरपूर हैं।उदाहरणार्थ बागपत के जिला विद्यालय निरीक्षक रवींद्र सिंह एक ऐसे शिक्षाधिकारी हैं,जिन्हें माध्यमिक शिक्षा अधिनियम के एक एक सूत्र की जानकारी रखने के साथ ही साथ विद्यार्थियों व शिक्षकों की सामान्य समस्याओं के समाधान के प्रति भी सदैव ततपर रहते हैं।कदाचित ऐसे ही लोगों के चलते शिक्षा विभाग की लाज कुछ हदतक बची भी है अन्यथा इस प्रदेश में श्री रामू प्रसाद वर्मा जैसे भी जिला विद्यालय निरीक्षक रहे हैं,जोकि बुला बुलाकर अपने आवास औरकि बस स्टैंडों पर भी धन उगाही करते थे तथा उन्हें शिक्षकों व विद्यार्थियों की समस्याओं को देखकर मानो मजा आता था।कदाचित आज प्रदेश में ऐसों की ही भरमार हो गयी है जो शिक्षा व्यवस्था पर भारी पड़ती दिख रही है।
शिक्षाधिकारियों की संवेदनहीनता और परस्पर संवादशुन्यता का ताजा वाकया भी आजकल उत्तर प्रदेश में दो शीर्ष अधिकारियों के चलते पूरे तंत्र की छीछालेदर करवा रहा है।जिसके चलते जहाँ एक तरफ़ माध्यमिक शिक्षा परिषद के सभापति व सूबे के शिक्षानिदेशक वर्षभर की विद्यालयी छुट्टियों की घोषणा करते हुए अलग परिपत्र जारी करते हैं तो दूसरी तरफ परिषद के ही सचिव शैक्षिक पंचांग जारी करते हुए निदेशक द्वारा जारी छुट्टियों के पत्र को दरकिनार कर गर्मी की छुट्टियों को बेमतलब कर देते हैं।दिलचस्प बात तो यह है कि शिक्षक विधायक सुरेश कुमार त्रिपाठी के पूँछने पर परिषद सचिव ग्रीष्मावकाश में समर कैम्प के आयोजन में शिक्षकों की उपस्थिति की अनिवार्यता से इनकार करते हुए बाह्य प्रशिक्षकों को बुलाने की बात करते हैं,किन्तु बाह्य प्रशिक्षकों के मानदेय आदि के मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं।मजेदार स्थिति तो तब और भी असमंजस उत्तपन्न करने में आग में घी डालने का कार्य करती है जब बुलंदशहर के जिला विद्यालय समर कैम्प को आयोजित करने के अपने आदेश को प्रत्यहृत कर लेते हैं जबकि अम्बेडकर नगर सहित सूबे के अधिकांश जिलों में आयोजित करने के आदेश निर्गत हो रहे हैं।ऐसे में शिक्षक व प्रधानाचार्य क्या करें,क्या न करें,यह उहापोह पूरे शिक्षा व्यवस्था पर भारी है।इस असमंजस से उबारने का कोई तारणहार नहीं दिखता।
ध्यातव्य है कि बात शिक्षाधिकारियों की ही संवेदनहीनता की नहीं अपितु उनके द्वारा नामित पर्यवेक्षकों द्वारा भी अधिकारिताविहीन किये गए आदेशों से विद्यालयों में असहज स्थितियां पैदा हो रहीं हैं।जिससे सुदूर जिलों के शिक्षक न तो ग्रीष्मावकाश में अपने घर जा पा रहे हैं और न ही समर कैम्प ही पूरे जोशोखरोश से आयोजित हो पा रहे हैं।दूसरी तरफ भीषण गर्मी से लथपथ विद्यार्थी किसी भी स्थिति में विद्यालय आने को तैयार नहीं दिखते किन्तु शिक्षाधिकारी तो मुये की खाल निकालने पर आमादा हैं।फिलहाल भीषण गर्मी में शिक्षकों व विद्यार्थियों की समस्याओं को अनसुना व अनदेखा करते हुए कैम्प का आयोजन किसी भी स्थिति में सम्वेदनशीलता का परिचायक नहीं कहा जा सकता।इसे अधिकारियों की मनमानी और परस्पर संवादहीनता की स्थिति कहा जाना उचित होगा।
समर कैम्प के आयोजन बाबत इंटरनेशनल बोर्ड ऑफ एजुकेशन, स्वीडन के सदस्य व जानेमाने शिक्षाशास्त्री ज्ञानसागर मिश्र के मुताबिक ग्रीष्मकालीन समरकैम्प शिक्षकों के लिए रिफ्रेशर कोर्स के रूप में ऑनलाइन व ऑफलाइन आयोजित किये जाते हैं।श्री मिश्र ने कहा कि यदि परिषद के अधिकारी इस सम्बंध में शिक्षाशास्त्रियों से विचार विमर्श करके कोई निर्णय लेते हो कैम्प के आयोजन को लेकर कोई नकारात्मक बात ही नहीं होती।
-उदयराज मिश्र
शिक्षाविद एवम शैक्षिक सलाहकार