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हरियाणवी लोकगीतों में रची-बसी है सांझी माता

विरासत में विराजमान हैं लोककला सांझी के विविध स्वरूप।

कुरुक्षेत्र, वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक : विरासत हेरिटेज विलेज में सांझी उत्सव उत्साह के साथ मनाया जा रहा है। यहां पर सांझी के विविध स्वरूप देखने को मिल रहे हैं। सांझी लोकजीवन में बालिकाओं द्वारा बनाई जाने वाली एक ऐसी प्रतिमूर्ति है जिसे लोक में देवी की संज्ञा भी दी गई है। सांझी सबकी साजली देवी के रूप में लोक कलात्मक अभिव्यक्ति है। अनादि काल से गांव में कुंवारी कन्याएं सांझी बनाती आ रही हैं। सांझी की हर रोज घर में बालिकाओं द्वारा पूजा की जाती है और गीत गाकर उसकी अराधना भी की जाती है। सांयकालीन हर रोज बालकाएं पहले सांझी की पूजा करती हैं और उसके बाद खाना खाती हैं। यह जानकारी विरासत में सांझी उत्सव के संयोजक अभिनव पूनिया ने दी।
उन्होंने बताया कि लोकगीतों में सांझी रची एवं बसी हुई है। बालिकाएं सांझी को सुबह खाना खिलाने से पहले जगाते हुए यह गीत गाती हैं- जाग सांझी जाग.. तेरै मात्थै लाग्या भाग.. बालिकाएं जब सांझी माई को खाना खिलाती हैं तो यह गीत गाती हैं- जीम ले हे जीम ले, सांझी माई जीम ले। सांझी माई इस सवाल के जवाब में उत्तर देती है- लाड्डू जीमूंगी पेड़ा जीमूंगी, अमृत की चलू भराऊंगी। जीम ले हे जीम ले, सांझी माई जीम ले। बालिकाएं गीत गाती हुई वस्त्र, आभूषण पहनने के संबंध में सांझी माई से पूछती हैं- के ओढ़ेगी के पहरेगी, क्याहेंं की मांग भरवावैगी। इस सवाल के जवाब में सांझी गीत के माध्यम से ही उत्तर देती है- शालू ओढूंगी दामण पहरूंगी, रोला की मांग भरवाऊंगी। अभिनव पूनिया ने बताया कि सांझी को जीमाने के पश्चात बालिकाएं एवं महिलाएं मिलकर सांझी का आरता एवं आरती गाती हैं- आरता हे आरता, सांझी माई आरता। सांझी के विषय में कहा जाता है कि यह नवरात्रों में अपने ससुराल जाती है। इसके ससुराल जाने के पश्चात गांव के बाग सूख जाते हैं और इसका भाई इसको लेने के लिए जाता है। वास्तव में सांझी भाई-बहन के प्रेम का भी द्योत्तक है। गीत गाती हुई बालिकाएं सांझी से सवाल करती हैं- मैं तन्नै पूछूं सांझी कै तेरे भाई। इस सवाल के जवाब में सांझी कहती है- पांच-पचास भतीजे, नौ-दस भाई। बालिकाएं गीत गाती हुई सांझी से फिर सवाल करती हैं- भाई भतीजों में से कितनों की सगाई एवं विवाह हो चुका है। इस पर सांझी उत्तर देती है- पांचों के ब्याह मुकलावे, दसों की सगाई। अभिनव पूनिया ने बताया कि बालिकाएं सांझी से प्रत्यक्ष रूप में सवाल-जवाब गीतों के माध्यम से करती हुई उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेती हैं और उनको सांझी से बड़ा लगाव हो जाता है। सांझी के भाईयों के विषय में गीत गाती हुई बालिकाएं कहती हैं- मेरी सांझी के ओरै-धोरै फूल रही कबाई, मैं तन्नै बुझूं हे सांझी कैं तेरे भाई। बीच-बीच में ग्रामीण बालिकाएं एवं महिलाएं अपने मन की व्यथा और घर की बातचीत को गीतों के माध्यम से प्रकट करती हुई कहती हैं- मेरा सुसर गया कबाई काढ़ण, सास गई रुटियारी पाच्छै तै बालक रो पड़े इन्हें क्यांये ते भुलोऊं हे सांझी माई। इस प्रकार सांझी की नौ दिनों तक पूजा होती है। लोक में सांझी को देवी के रूप में पूजा जाता है। इसकी पुष्टि इस गीत के माध्यम से होती है-सांझी री सांझी तूं संझवाली, भाई भतीजे तू रखवाली। विजयदशमी के दिन सांझी को उतारकर तालाब में विसर्जित कर दी जाती है। विसर्जित करते समय सांझी का गीत गाते हुए बालिकाएं कहती हैं- शीशा छाई चुंदड़ी तारा छाई रात, सांझी चाली बाप कै, बुहाइयो हे राम। इस प्रकार लोकगीतों में सांझी के विविध आयाम देखने को मिलते हैं।

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