अयोध्या:———-
भगवान के साथ राजनीति की भी साधना करते रहे संत भगवान के साथ राजनीति की भी साधना करते रहे संत अयोध्या
मनोज तिवारी ब्यूरो रिपोर्ट अयोध्या
भगवान को साधने वाले संत राजनीति की भी साधना करते रहे। मंदिर आंदोलन के शलाका पुरुष एवं वैष्णव समाज के शीर्ष संतों में शुमार साकेतवासी रामचंद्रदास परमहंस रामनगरी में इस परंपरा के अग्रदूत हैं। 1951 में जनसंघ की स्थापना के साथ रामनगरी में इस पार्टी की कमान संभालने के लिए जो पहली पीढ़ी सामने आई, उनमें परमहंस अग्रणी थे। वे कालांतर में नगर पालिका के सभासद भी चुने गए। यद्यपि वक्त बीतने के साथ उन्होंने स्वयं को सक्रिय राजनीति से अलग कर लिया। 1984 से उनकी ऊर्जा मंदिर आंदोलन के प्रति अर्पित होती रही, कितु राजनीति से उनका जुड़ाव बना रहा और वे चुनाव के मौके पर मंदिर का समर्थन करने वाली पार्टियों एवं प्रत्याशियों के स्टार प्रचारक साबित होते रहे। मंदिर आंदोलन की ही उपज डा. रामविलासदास वेदांती न केवल आंदोलन के अग्रणी नेता के तौर पर प्रतिष्ठापित हुए, बल्कि राजनीति में भी उनकी धमाकेदार इंट्री हुई। भाजपा के टिकट पर वह 1996 में मछलीशहर से एवं 98 में प्रतापगढ़ क्षेत्र से सांसद चुने गए। 1999 के चुनाव में भाजपा ने उन्हें लगातार तीसरी बार प्रत्याशी बनाया। हालांकि इस बार उन्हें मछलीशहर सीट से नजदीकी पराजय का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद डा. वेदांती पार्टी की पसंद बने रहे और 2004 के चुनाव में भाजपा नेतृत्व ने उन्हें अमेठी से राहुल गांधी के विरुद्ध प्रत्याशी बनाया। उस दौर में राहुल गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ कर डा. वेदांती ने पार्टी के प्रति अपने समर्पण का परिचय तो दिया, कितु पार्टी ने इसके बाद से उन्हें भुला दिया। यद्यपि डा. वेदांती पूरी तरह से स्वस्थ-सक्रिय हैं, कितु टिकट वितरण की बेला में उन्हें भुला दिया जाता है। इसके बावजूद डा. वेदांती को कोई मलाल नहीं है। वह कहते हैं, हमारे लिए राजनीति सत्ता नहीं, सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का साधन रही है और यह प्रयास मैं चुनाव लड़े बिना भी करता रहूंगा। रामनगरी के एक औैर संत को देश की सर्वोच्च पंचायत तक पहुंचने के लिए याद किया जाता है। यह हैं, महंत विश्वनाथदास शास्त्री। आरएसएस का एजेंडा मजबूत करने से लेकर मंदिर आंदोलन के प्रभावी नेताओं में शुमार रहे विश्वनाथदास को भाजपा ने 1991 के चुनाव में सुल्तानपुर से प्रत्याशी बनाया और उन्होंने अपनी मृदुता, वाकपटुता तथा सांगठनिक क्षमता का परिचय देते हुए यह सीट पार्टी की झोली में डाल दी। 1996 के चुनाव में भाजपा नेतृत्व ने उन्हें टिकट नहीं दिया, तो वे अजेय भारत पार्टी से मैदान में उतरे। इस बार उन्हें हार मिली औैर इसी के साथ उनका चुनाव से मोह भंग हो गया, कितु पांच वर्ष पूर्व चिरनिद्रा में लीन होने से पहले तक वे रामनगरी की सांस्कृतिक धड़कन के तौर पर प्रासंगिक बने रहे।