राजानां अनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा : चाणक्य

राजा का धर्म,कर्तव्य और नेतृत्व का अर्थ।
पानीपत, प्रमोद कौशिक 15 जुलाई : पानीपत आयुर्वेदिक शास्त्री अस्पताल के संचालक एवं प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य साहित्यकार डॉ. महेंद्र शर्मा ने आज जानकारी देते हुए बताया कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस के श्री सुन्दर काण्ड पाठ में राजा, रोगी और शिष्य को दीर्घायु तक अस्तित्व या जीवन्त रहने के लिए धर्म, नियमन, कानून और सिद्धांतों पर चलने का उपदेश दिया है कि यदि राजा अपने चापलूसों मंत्रियों या स्वार्थीनीति निर्धारकों का कहना मान कर राजनीति करेगा, रोगी चिकित्सक की ओर कान नहीं धरेगा, पथ्य अपथ्य को नज़रंदाज करेगा और शिष्य अपने माता-पिता और गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करेगा तो तीनों का शीघ्र ही नष्ट होना तय है। नेतृत्व वास्तव का अर्थ बड़ा गहरा है, इसलिए यदि हर किसी को नेतृत्व करने का सौभाग्य भी नहीं मिलता। यदि सभी को नेतृत्व करने का अवसर मिलता सर्वत्र अराजकता फैल जाती कोई भी क्षेत्र हो … चाहे वह अर्थव्यवस्था हो या सामाजिक या आध्यात्मिक हो या राजनैतिक क्षेत्र हो यहां पर सभी व्यवस्थाएं अनियन्त्रित हो जाती और अराजकता का प्रसार होता।
भारतीय राजनीति के ही दर्शन करें कि जब से देश की बड़ी पार्टियों की राजनीति में आंतरिक प्रजातन्त्र समाप्त हुआ है तब से ही राजनैतिक अस्थिरता का प्रसार हुआ है जिससे बड़े बड़े राष्ट्रीय राजनैतिक दल कई प्रदेशों में अप्रासंगिक हो गए हैं। यद्यपि मैं य़ह अवश्य मानता हूं कि व्यक्तिवाद या क्षेत्रवाद की राजनीति कभी भी दीर्घायु नहीं होती यह तब तक चलती है जब तक किसी असंतुष्ट राजनेता जिसने क्षेत्रीय राजनैतिक दल का गठन किया था उस का जीवन रहता है। उसके संसार से विदा होते ही उस परिवार की राजनीति इतिहास बन जाती है क्योंकि राजनीति में राष्ट्रीय और प्रांतीय स्वार्थ में व्यक्तिवादिता और निजी स्वार्थ का प्रवेश हो जाता है जो ईश्वर को कतिपय पसंद नहीं है।
हम अपने हरियाणा की राजनीति से इसका अवलोकन कर सकते हैं … क्या हश्र हुआ है … पारिवारिक राजनीतिज्ञों का स्थिति यह है कि अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए राजनैतिक तिकड़म का सहारा लेना पड़ रहा है, क्योंकि जनता (ईश्वर) को य़ह नियमन पसंद नहीं है। तत्कालीन राजनैतिक शेरों के युवा पुत्रों के मुख में वह शिकार करने वाले न तो दांत हैं और न ही दौड़ने की वह आकर्षक शक्ति कि लोग खिंचे चले आयें … इसमें दोष किस्मत का नहीं नियत का है…
अस्वीकार्यता का कारण स्पष्ट है कि वह अपने पूर्वजों के त्याग और कर्तव्यों के नियमन का पालन नहीं कर सके जिसके लिए उनके पूर्वजों ने जनकल्याण के लिए संघर्ष किया था।
नहीं बख़्त हमराह रहते।
मेरे प्यार को तू ठुकरा नहीं।
देता फिरेगा मुझे तू आवाजें।
मिलना अधिकार कदा नहीं।
य़ह तो देश को धीरे धीरे संज्ञान हो रहा है कि हमारे शासक वही व्यवहार कर रहे हैं जो मुगलकाल में मुस्लिम राजा किया करते थे। तब मुसलमानों की ” इस्लामी धर्म” राज्य प्रशासनिक पद्धति थी, तलवार थी और उनके पास कुरान था, कहना न मानने पर तलवार से सिर और जनेऊ उड़ते थे और उड़ता था हमारा सनातन धर्म … कुरान जिस का प्रारम्भ ही ‘कु’ शब्द से वह जनमानस के ‘सु’ सुखकारी कैसे हो सकता है, इसके विपरीत देश में आज की लोकतंत्रात्मक पद्धति में पूर्णरूपेण निरंकुशता चल रही है उसमें तलवार की जगह कोई अस्त्र नहीं बल्कि सरकारी तंत्र प्रकोष्ठ प्रयोग हो रहे है, सत्ता धर्म की राजनीति तो करती है लेकिन स्वयं ही गीता और रामायण को नहीं अपनाती यदि इन्हें अपनाए और अनुसरण करें तो गीता हमें त्याग सिखाती है, त्याग तो हम करना ही नहीं चाहते और रामायण हमें कर्तव्य और अधिकार सिखाती है, यदि हम इन दोनों का अनुकरण करेंगे तो फिर शासन कैसे चलेगा। य़ह राजनैतिक यक्ष प्रश्न है। इसलिए राजनीतिज्ञ लोगों से जुड़े रहने के लिए छद्म कार्य करते रहते हैं ताकि भ्रम की स्थितियां बनी रहें और लोग जुड़ें रहें।
कहने का तात्पर्य यह है समय भेद के कारण प्रशासनिक उग्रता वही है लेकिन संसाधन अलग अलग है, लेकिन लक्ष्य तो दोनों का सत्ता पर नियन्त्रण ही था और अब भी है। तब और अब सत्ता का लक्ष्य एक ही था जिसमें शिक्षा और अन्नाभाव और प्रश्न करना सम्भव न हो। कमोबेश आज भी वही हाल है कि शिक्षा ग्रहण करना दूभर होता जा रहा है, वही धार्मिक उन्माद, उग्रता, क्रोध, हत्या, प्रतिशोध, दमन, लूटपाट, आगजनी, अशिक्षा और निरंकुश दण्ड प्रणाली का प्रसार हो रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की राजनीति साम दाम दण्ड भेद नियमन पर आधारित है … सत्य कहने लिखने वालों को प्रताड़ना मिलती है लेकिन 2031 ई0 तक तो देश में ऐसी राजनैतिक स्थितियां बदलने वाली नहीं है। अब देश को धीरे धीरे संज्ञान हो रहा है कि हमारे शासक वही व्यवहार कर रहे हैं जो मुगल काल में मुस्लिम राजा किया करते थे। तब मुसलमानों की ” इस्लामी धर्म” राज्य प्रशासनिक पद्धति थी, तलवार थी और उनके पास कुरान था, कहना न मानने पर तलवार से सिर और जनेऊ उड़ते थे और उड़ता था हमारा सनातन धर्म … कुरान जिस का प्रारम्भ ही ‘कु’ शब्द से वह जनमानस के ‘सु’ सुखकारी कैसे हो सकता है, इसके विपरीत देश में आज की लोकतंत्रात्मक पद्धति में पूर्णरूपेण निरंकुशता चल रही है उसमें तलवार की जगह कोई अस्त्र नहीं बल्कि सरकारी तंत्र प्रकोष्ठ प्रयोग हो रहे है, सत्ता धर्म की राजनीति तो करती है लेकिन स्वयं ही गीता और रामायण को नहीं अपनाती यदि इन्हें अपनाए और अनुसरण करें तो गीता हमें त्याग सिखाती है जो हम करना नहीं चाहते और रामायण हमें कर्तव्य और अधिकार यदि इन दोनों का अनुकरण करेंगे तो फिर शासन कैसे चलेगा। य़ह राजनैतिक यक्ष प्रश्न है। इसलिए राजनीतिज्ञ लोगों से जुड़े रहने के लिए छद्म कार्य करते रहते हैं ताकि भ्रम की स्थितियां बनी रहें और लोग जुड़ें रहें।
कहने का तात्पर्य यह है समय भेद के कारण प्रशासनिक उग्रता वही है संसाधन अलग अलग है, लेकिन लक्ष्य दोनों का सत्ता पर नियन्त्रण था और जिसमें शिक्षा और अन्नाभाव था और प्रश्न करना सम्भव नहीं था। कमोबेश आज भी वही हाल है कि शिक्षा ग्रहण करना दूभर होता जा रहा है, वही धार्मिक उन्माद, उग्रता, क्रोध, हत्या, प्रतिशोध, दमन, लूटपाट, आगजनी, अशिक्षा और निरंकुश दण्ड प्रणाली का प्रसार हो रहा है।
देखो राजनैतिक ऊंट किस करवट बैठता है। अभी प्रथम दृष्टया तो चुनाव सूची के पवित्रीकरण से संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है और माननीय उच्चतम न्यायालय ने आधार कार्ड आदि अन्य साधनों के प्रयोग पर स्पष्ट आदेश न देकर परोक्षरूप से संकट को और बढ़ाया है। बिहार में चुनावों से पहले ही चुनावों के भावी परिणाम घोषित हो चुके हैं। आज जो चुनावी सूचियों का पवित्रीकरण हो रहा है तो क्या गत वर्ष हुए चुनावों पर प्रश्न नहीं उठेगा कि वह गलत सूचियों पर चुनाव हुए थे। राजनैतिक ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो ईश्वर भी जानते। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की राजनीति साम दाम दण्ड भेद नियमन पर आधारित है … सत्य कहने लिखने वालों को प्रताड़ना मिलती है लेकिन 2031ई0 तक तो देश में ऐसी राजनैतिक स्थितियां चलती। रहेंगी जो बदलने वाली नहीं है l समस्या है निदान भी साथ साथ चल रहा है, हम देवस्थानों में अवश्य जाएं, ईश्वर के प्रति अटूट और अगाध श्रद्धा और विश्वास भी रखें लेकिन ईश्वर दर्शन से पूर्व देवस्थानों की दहलीज पर बैठे उन निराश्रित गरीब और भूखे बच्चों महिलाओं रोगियों और जरुरतमंद लोगों की सेवा करें अन्यथा सब कुछ निरर्थक हो जाएगा … दरिद्र नारायण ही भगवान का रूप हैं और
भगवान स्वयं कहते हैं …
होती है आरती बजते हैं शंख।
पूजा में सब खोए हैं
मंदिर के बाहर तो देखो।
भूखे बच्चे सोये हैं
एक निवाला इनको देना।
प्रसाद मुझे चढ़ जाएगा
मेरे दर पे मांगने वाले
बिन मांगे मिल जाएगा
अंत में हम नेतृत्व की व्याख्या करें … जिसका अर्थ बड़ा सरल और सटीक है … वह महानुभाव जो आम जनमानस के दुख-सुख में अग्रगण्य भूमिका का निर्वहन कर रहा है वह दुख पीड़ा दूर करने के लिये सबसे आगे खड़ा हो और यदि कोई प्रशासनिक उपलब्धि हुई हो जब आम जनता जश्न मना रही हो तो वह उस आनंद उत्सव और जश्न का दृष्टा मात्र बन कर ईश्वर का धन्यवाद कर रहा हो कि हे प्रभु! आप का धन्यवादी हूं कि आपने मुझे इस योग्य बनाया इसी शाब्दिक व्याख्या को नेता कहते हैं जिसका आधुनिक भारतीय राजनीति में सर्वदा अभाव है जो भगवान श्री राम की तरह से सोचता हो कि सत्ता जनता के प्रति जवाबदेह हो, राष्ट्र का आखिरी व्यक्ति भी सत्ता से असंतुष्ट न हो।अन्यथा तो वही होगा जैसे हमारे छोटे बालक अपने घर परिवार में परस्पर व्यवहार करते हुए देखते हैं जिन्हें संस्कार कहते हैं … आम जनता भी वैसा ही आचरण करेगी जैसा कि हमारे शासक … इनकी कार्य शैली से डर लगता है कि यदि राजा ने कुछ गलत कार्य किया तो कहीं जनता भी वैसा न करने लगे।अंत में प0 चाणक्य की राजनीतिक शिक्षा तो यही है कि …
राज्ञ धर्मिणि: धर्मिष्ठा पापे पापा: समे समा:।
यदि राजा धार्मिक होगा तो प्रजा भी धर्मचर होगी … अन्यथा नहीं।
आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’।