सागर मलिक
*स्वतंत्रता आंदोलन में RSS के योगदान को रेखांकित कर रहे हैं (वी के चहल पहाडी)
आइये आज आज़ादी से पहले के अतीत के कुछ पन्ने पलटते हैं और बात करते हैं आज़ादी के महासंग्राम की जिसमे पता नहीं कितने अनगिनत देश के मतवालों ने अपने प्राणों की आहुति देश की आज़ादी के लिऐ उफ किये बिना दे दी। उन मतवालों में कुछ तो गुमनाम हो कर रह गए या फिर गुमनाम कर दिए गए। ये मतवाले गुमनाम इसलिए लोगों की नजरो में नही आ सके क्युकी कुछ एक रसूख वाले लोगो ने इन मतवालों को गुमनामी के अंधेरे से बाहर नहीं आने दिया।
उस गुमनामी के अंधेरे में एक यैसे राष्ट्र प्रेमी संगठन को भी धकलने की कोशिश करी गई जिसे आज हम RSS के नाम से जानते हैं। RSS ने भी देश की आज़ादी में अपना पूरा योगदान दिया था और अलग बात है कि RSS के बलिदान को कोंग्रेस के बड़े होदेदार लोगो ने गुमनामी के अंधेरो में धकेलने की कोशिश करी
कोंग्रेस और नेहरु को पता था कि RSS ने देश कि आज़ादी में पुरे दम ख़म से पूर्ण प्रयास किया परन्तु नेहरु की सत्ता की मेह्ताव्कंषा के चलते RSS को बदनाम कर देश की आज़ादी की लड़ाई से गुमनाम करने की कोशिश करी गई
अंग्रेजों का साथ दिया या उनके साथ रहा संघ यह कहना गलत हैl
संघ पर यह आरोप भी लगता आया है कि उसने भारत की आजादी में भाग न लेकर अंग्रेजों या कहें ब्रितानी हुकूमत का साथ दिया या उनके साथ रहा। यह कहना बिल्कुल गलत है कि संघ ने अंग्रेजों का साथ दिया या अंग्रेजों के साथ रहे। इसका कारण यह है कि RSS के संस्थापक डॉ. हेडगेवार शुरु से अंग्रेजों के खिलाफ थे। भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता किताब लिखने वाले सहगल बताते हैं कि संघ के स्वयंसेवकों ने अलग-अलग संगठनों और दलों की तरफ से आयोजित आंदोलनों और सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। ऐसे में यह कहना कि संघ ने कुछ नहीं किया था तो यह एक मूर्खता है।
सहगल यह भी मानते हैं कि कुछ राजनेताओं ने अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए संघ के स्वयंसेवकों के आजादी की लड़ाई में हिस्से को सिरे से खारिज कर दिया था। लेखक सहगल यह भी मानते हैं कि सबसे ज्यादा अन्याय हेडगेवार के साथ हुआ। जो व्यक्ति आखिरी सांस तक आजादी की लड़ाई के लिए जूझता रहा उसके बारे में न कोई आत्मकथा लिखी गई और न ही उसे अखबारों में छपवाने की कोशिश की गई।
सभी देशवासियों ने 15 अगस्त 2022 के दिन आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाई। पूरे देश में आजादी के इस अमृत महोत्सव पर भारत के कई कोनों से खूबसूरत तस्वीर देखने को मिलीं। इसके 2 दिन पहले से शुरु हुई तिरंगा यात्रा ने सबको देशभक्ति के रंग में रंग दिया था। स्वतंत्रता दिवस से पहले लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। हर साल हम भारत की आजादी की तारीख नजदीक आते ही इतिहास के उन पन्नों का जिक्र जरूर करते हैं जिसमें हमारे वीर सपूतों और स्वतंत्रता सेनानियों की कहानी से लेकर उनके संघर्ष की दास्तान होती है। मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई से लेकर भगत सिंह, उधम सिंह, से लेकर न जाने कितने असंख्य लोगों ने भारत माता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। लेकिन इसके साथ भारत में एक ऐसा संगठन है जिसकी देशभक्ति पर हमेशा से सवाल उठता आया है, उससे हमेशा से एक सवाल पूछा गया कि आपका देश की आजादी में क्या योगदान था? अब तक तो आप यह समझ ही गए होंगे की हम किसकी बात कर रहे हैं। जी हां हम बात कर रहे हैं राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ की। क्या वाकई में संघ ने देश की आजादी में हिस्सा नहीं लिया था? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका उत्तर हम आपको इस विशेष लेख में देंगे। कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों के सवाल पर RSS ने क्या तर्क दिए हैं।
1925 की विजयादशमी पर संघ स्थापना करते समय भी डा० हेडगेवार जी का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाधीनता ही था। संघ के स्वयंसेवकों को जो प्रतिज्ञा दिलाई जाती थी उसमें राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प होता था। संघ स्थापना के तुरन्त बाद से ही स्वयंसेवक स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने लगे थे।
1926-27 में जब संघ नागपुर और आसपास तक ही पहुँचा था, उसी काल में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजगुरु नागपुर की भोंसले वेदशाला में पढ़ते समय स्वयंसेवक बने। इसी समय भगत सिंह ने भी नागपुर में डॉक्टर जी से भेंट की थी। दिसम्बर 1928 में ये क्रान्तिकारी पुलिस सांडर्स का वध करके लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेकर लाहौर से सुरक्षित आ गए थे। डॉ. हेडगेवार ने राजगुरु को उमरेड में भैया जी दाणी (जो बाद में संघ के अ.भा. सरकार्यवाह रहे) के फार्म हाउस पर छिपने की व्यवस्था की थी। 1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर पूरे देश में उसका बहिष्कार हुआ। नागपुर में हड़ताल और प्रदर्शन करने में संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में थे।
1928 में विजयदशमी उत्सव पर भारत की असेम्बली के प्रथम अध्यक्ष और सरदार पटेल के बड़े भाई श्री विट्ठल भाई पटेल उपस्थित थे। अगले वर्ष 1929 में महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उत्सव में उपस्थित ही संघ को अपना आशीर्वाद दिया। स्वतंत्रता संग्राम की अनेक प्रमुख विभूतियाँ संघ के साथ स्नेह संबंध रखती थीं।
डॉ. हेडगेवार ने 1920 के नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव रखा था, पर तब वह पारित नहीं हो सका था। 1930 में कांग्रेस द्वारा यह लक्ष्य स्वीकार करने पर आनन्दित हुए हेडगेवार जी ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार 26 जनवरी 1930 को सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज वन्दन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई। इस आदेश के अनुसार संघ की सब शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
6 अप्रैल 1930 को दांडी में समुद्रतट पर गाँधी जी ने नमक कानून तोड़ा । यह नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोड़कर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ। डॉ. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डा. परांजपे को सौंप स्वयं अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह करने गए। जुलाई 1930 में सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार के सम्बोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।
डॉ. हेडगेवार के साथ गए सत्याग्रह जत्थे में आप्पा जी जोशी(बाद में सरकार्यवाह) दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रान्त प्रचारक) आदि प्रमुख 12 स्वयंसेवक थे। उनको 9 मास का सश्रम कारावास दिया गया। उसके बाद अ.भा.शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सरसेनापति) श्री मार्तण्ड राव जोग, नागपुर के जिलासंघचालक श्री अप्पाजी हलदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे। 8 अगस्त को गढ़वाल दिवस पर धारा 144 तोड़कर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए।
विजयादशमी 1931 को डॉ. हेडगेवार जी जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गाँव-गाँव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढ़ा गया, जिसमें कहा गया था- “देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता तब तक किसी को निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं ।” जनवरी 1932 में विप्लवी दल द्वारा सरकारी खजाना लूटने के लिए हुए बालाघाट काण्ड में वीर बाघा जतीन (क्रान्तिकारी जतीन्द्र नाथ) अपने साथियों सहित शहीद हुए और श्री बाला जी हुद्दार आदि कई क्रान्तिकारी बन्दी बनाए गए। श्री हुद्दार उस समय संघ के अ.भा.सरकार्यवाह थे।
संघ के विषय मे गुप्तचर विभाग की रपट के आधार पर ब्रिटिश भारत सरकार (जिसके क्षेत्र में नागपुर भी था) ने 15 दिसम्बर 1932 को सरकारी कर्मचारियों की संघ में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया। डॉ. हेडगेवार जी के देहान्त के बाद 5 अगस्त 1940 की सरकार ने भारत सुरक्षा कानून की धारा 56 व 58 के अन्तर्गत संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया।
संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। विदर्भ के अष्टी चिमूर क्षेत्र में समानान्तर सरकार स्थापित कर दी। अमानुषिक अत्याचारों का सामना किया। उस क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों ने अपना बलिदान किया। नागपुर के निकट रामटेक के तत्कालीन नगर कार्यवाह श्री रमाकान्त केशव देशपाण्डे उपाख्य बालासाहब देशपाण्डे को आन्दोलन में भाग लेने पर मृत्युदण्ड सुनाया गया। आम माफी के समय मुक्त होकर उन्होंने वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। देश के कोने-कोने में स्वयंसेवक जूझ रहे थे। मेरठ जिले में मवाना तहसील पर झण्डा फहराते स्वयंसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई, अनेक घायल हुए।
आंदोलनकारियों की सहायता और शरण देने का कार्य भी बहुत महत्व का था। केवल अंग्रेज सरकार के गुप्तचर ही नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी के आदेशानुसार देशभक्तों को पकड़वा रहे थे। ऐसे जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज गुप्त के यहाँ आश्रय पाते थे। प्रसिद्ध समाजवादी श्री अच्युत पटवर्धन और साने गुरुजी ने पूना के संघचालक श्री भाऊसाहब देशमुख के घर पर केन्द्र बनाया था। ‘पतरी सरकार ‘ गठित करने वाले प्रसिद्ध क्रान्तिकमीं नाना पाटिल को औौंध (जिला सतारा) में संघचालक पं.सातवलेकर जी ने आश्रय दिया।
विभाजन से पूर्व कांग्रेस ही वह मंच था, जिससे मुस्लिम लीग तथा ब्रिटिश सरकार सत्ता हस्तांतरण अथवा विभाजन के संबंध में बात करते थे। 3 जून 1947 को वायसराय माउण्टबेटन ने भारत को विभाजित कर जून 1948 तक स्वतंत्र करने की योजना घोषित की थी। संघ सहित सम्पूर्ण देश विश्वास कर रहा था कि कांग्रेस भारत विभाजन स्वीकार नहीं करेगी। परन्तु 14-15 जून को कांग्रेस कार्यसमिति ने इस योजना को स्वीकार कर सारे देश को स्तब्ध कर दिया। नेहरू जी ने 1960 में स्वीकार किया था- सच्चाई यह है कि हम थक चुके थे और आयु भी अधिक हो गई थी और यदि हम अखण्ड भारत पर डटे रहते तो स्पष्ट है हमें जेल जाना पड़ता। (दि ब्रिटिश राज— लियोनार्ड मोस्ले पृ. 285) श्री राम मनोहर लोहिया ने लिखा- नेताओं की तो अध् गोगति हुई। वे लालच के फन्दे मे फंस गए। (दि गिल्टीमैन ऑफ इण्डियाज पार्टीशन पृ. 37) इण्डियाज पार्टीशन पृ. 37)l
भारत विभाजन की मँग करने वाली मुस्लिम लीग को ब्रिटिश सरकार का समर्थन तो प्राप्त था ही कोंग्रेस के थके हुए पद लोपुप नेतृत्व के द्वारा विभाजन स्वीकार कर लेने पर राष्ट्र की एकता के समर्थक संघ तथा हिन्दू महासभा आदि ने अपना प्रयास प्रारम्भ कर दिया। इसी बीच विभाजन विरोधी शक्तियाँ तेजी से उभरने लगीं। उन शक्तियों को संगठित होते देख कर ब्रिटिश सत्ताधीशों का माथा ठनका। उन्होंने सोचा कि यदि इस विरोध को चरम सीमा तक पहुँचने का अवसर मिल गया तो भारत को तोड़कर छोड़ने का उनका मन्सूबा पूरा नहीं हो सकेगा। इसलिए उस व्यापक विरोध से बचने के लिए ब्रिटिश शासन ने अपने भारत छोड़ने की पूर्व घोषित तिथि जून अन्त 1948 के 10 माह पहले ही भारत छोड़ दिया। (बाला साहब देवरस पहली अग्नि-परीक्षा) माउण्टबेटन ने कहा- ‘इससे पूर्व कि देश में विभाजन के विरुद्ध कोई प्रभावी प्रतिरोध खड़ा हो सके, समस्या का झटपट निपटारा कर डाला। (दि ब्रिटिश राज पृ. 118)’ कांग्रेस द्वारा विभाजन की स्वीकृति के मात्र 60 दिन में देश का विभाजन कर अंग्रेज ने सत्ता हस्तांतरण कर दिया। यदि 10 मास का समय और मिला होता तो समाज को विभाजन के विरुद्ध तैयार कर लिया जाता।
कांग्रेस का एक समूह को था संघ का समर्थन, सरदार पटेल भी थे उनमें शामिल ऐसा कहा जाता है कि सरदार पटेल सहित कांग्रेस में एक ऐसा समूह भी था जो संघ को लेकर हमदर्दी रखता था। 6 जनवरी 1948 को लखनऊ से अपने भाषण में कहा, ‘ कांग्रेस के जो नेता इस समय सत्तारूढ़ वे सोचते हैं कि वे अपनी सत्ता के बल पर संघ को कुचल देंगे। डंडे के बल पर आप किसी संगठन को नहीं दबा सकते। संघ के लोग देशभक्त हैं और वे अपने देश से प्रेम करते हैं। हालांकि गांधी जी की हत्या के बाद विरोधियों को मौका मिल गया और इसी बहाने से संघ के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन बाद में यह समझ आ गया कि RSS पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं है।
1942 के आंदोलन में संघ की भूमिका पर गुरु गोलवलकर ने कहा था कि देश की स्वतंत्रता के लिए भाग लेने की स्वयंसेवकों की तीव्र इच्छा होना स्वाभाविक है। जिस कांग्रेस ने आंदोलन चलाने का निश्चय किया उन्होंने यह नहीं सोचा कि देश में और भी संस्थाएं हैं जो देश को अंग्रेजों के पाश से मुक्त कराना चाहती हैं। तो भी संघ के स्वयंसेवक पहले की तरह इसल आंदोलन में भी निजी हैसियत से कांग्रेस के नेतृत्व में भाग ले रहे हैं और लेते रहेंगे। साल 1947 सितंबर, यानि आजादी के एक महीने बाद महात्मा गांधी ने गुरु गोलवलकर से मिलने की इच्छा जाहिर की तो गोलवलकर ने तुरंत दिल्ली आकर बिड़ला भवन में गांधी से मुलाका की। गांधी संग संघ के किसी कार्यक्रम में जाकर स्वयंसेवकों को संबोधित करना चाहते थे। 16 सिंतबर 1947 को बिड़ला भवन के पास भंगी कालोनी के एक मैदान में संघ के 500 से ज्यादा स्वयंसेवकों को संबोधित किया और संघ के काम की तरीफ की थी।
संघ के जानकार कहते हैं कि आजादी की लड़ाई में संघ के सक्रिय आंदोलन को नकारने वाले यह भूल जाते हैं कि RSS ने संगठन के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से बहुत काम किया था। वे यह मानते हैं कि संघ के वैचारिक विरोधियों ने हर संभावित अकादमियों आदि में अपनी पैठ की और संघ के खिलाफ लिखा और आजादी का सेहरा एकमात्र कांग्रेस के सर बांध दिया जो अपूर्ण है।
नेहरु को पता था कि अगर RSS के योगदान को जनता के सामने आने दिया तो आजाद भारत की सत्ता RSS के हाथो में जा सकती है, इसलिये नेहरु और अन्य कोंग्रेस के लोगो ने RSS को देश के सामने एक देश द्रोही संगठन साबित करने की पूरी कोशिश करीl जबकि RSS ने और उसके हर सदस्य ने देश की आज़ादी के लिए पूरा योगदान दिया हैl
इसलिये आज देश के हर नागरिक को जानना होगा देश की आज़ादी में RSS के योगदान कोl