नवाब जस्सा सिंह अहलूवालिया की पुण्यतिथि पर गौरव शाली इतिहास याद किया गया : अशोक रोशा।
वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
कुरुक्षेत्र : आजादी के लिए सिखों के संघर्ष के दौरान सर्वोच्च कमांडर सुल्तान-उल-कौम नवाब जस्सा सिंह आहलूवालिया का जन्म 3 मई 1718 को लाहौर के करीब एक छोटे से गाँव आहलू में हुआ था। जब वह केवल 5 साल के थे तो ही उनके पिता सरदार बदर सिंह का निधन हो गया। उनकी माँ माता जीवन कौर ने अपने भाई एवं प्रमुख सिख योद्धा सरदार बाग़ सिंह अहलूवालिया की मदद से उनका पालन पोषण किया। उनके मामा के निधन के पश्चात उनके जत्थे का उत्तराधिकार का उत्तराधिकार नवाब जस्सा सिंह आहलुवालिया को मिला।
1723 में युवा जस्सा सिंह अहलूवालिया को दिल्ली ले लाया गया ताकि उस वक्त वहा रह रही गुरु गोविन्द सिंह जी की धर्मपत्नी माता सुन्दरी जी का आशीर्वाद दिलवाया जा सके। माता सुन्दरी जी ने उनकी देखभाल अपने बच्चे की तरह की। युद्ध कला तथा राज्य तन्त्र का शुरुवाती प्रशिक्षण उन्हें सिखों के महान नेता नवाब कपूर सिंह से प्राप्त हुआ। उनके बाद 1753 में उन्हें पन्थ का नेता चुना गया और नवाब की पदवी से नवाजा गया।
मार्च 1761 में उन्होंने 2200 हिन्दू युवतियों को अफगानिस्तान के बादशाह अहमदशाह अब्दाली के कब्जे से आजाद करवाया। उनके इस कार्य ने उन्हें सिखों में “बंदी छोड़ ” के नाम उपाधि से नवाजा गया। नवम्बर 1761 में लाहौर पर जीत के बाद उन्हें पातशाह या सुल्तान-उल-कौम कहा जाने लगा और वह सयुंक्त पंजाब के प्रथम सम्राट बन गये। इस मौके पर गुरु नानक देव जी और गुरु गोविन्द सिंह के नाम पर सिक्के उन्होंने जारी किये और सिख राज की प्रभु सत्ता का ऐलान कर दिया।
8 फरवरी 1762 को सिखों के जनसंहार जिसे “वड्डा घलुघारा ” कहा जाता है के बाद उन्होंने अफ्घानी सेनाओ के खिलाफ दल खालसा का नेतृत्व किया। इस दौरान उन्हें 2 दर्जन जख्म लगे। 1764 में उनके नेतृत्व में दल खालसा ने सरहिंद को जीता और इसे नेस्तोनाबूद करके छोटे साहिबजादो बाबा फतेह सिंह जी , बाबा जोरावर सिंह जी तथा माता गुजरी की शहीदी का बदला लिया। यहा उन्होंने गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब की स्थापना करवाई। उन्हें सिख धार्मिक परम्पराओं का संरक्षक माना जाता है। उन्होंने पवित्र दरबार साहिब यानि स्वर्ण मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया जो अहमद शाह अब्दाली के हमले के बाद खस्ताहाल हो चूका था।
इसके निर्माण के लिए उन्होंने अपनी ओर से 9 लाख तथा अन्य सिख भाइयो से जमा किये 5 लाख रूपये का दान दिया। 3 अप्रैल 1764 को उन्होंने दुसरी बार श्री दरबार साहिब का नीव पत्थर इसके जीर्णोद्धार के लिए रखा था। युद्ध के मैदान में सफलनेतृत्व ए अलावा वह कपूरथला रब्बी घराना के सरंक्षक भी थे और स्वयं एक महान रबाब वादक और कीर्तनकार थे।
सिखों ने उनके नेतृत्व के तहत अपनी ताकत बढाने के लिए कभी कोई लड़ाई नही लड़ी। उनके युद्ध तो अक्सर होने वाले विदेशी आक्रमणों तथा मुगलों के तानाशाही राज के खिलाफ थे पूर्णत:धर्म निरपेक्ष व्यक्ति थे। 20 अक्टूबर 1783 को 65 वर्ष की आयु में उनकी जीवन यात्रा समाप्त हो गयी। पन्थ के प्रति उनकी महान सेवा के लिए अमृतसर के बुर्ज बाबा अटल साहिब के पवित्र परिसर में उनका दाह संस्कार किया गया जहा उनकी समाधि
स्थापित है इस अवसर पर नरेंद्र वालिया प्रधान अहलूवालिया सभा संरक्षक राजेन्द्र वालिया केपी वालिया संजय वालिया प्रदीप वालिया अनमोल वालिया प्रदीप रोशा मामचंद वालिया अनिरुद्ध वालिया तरुण वालिया सतपाल वालिया गौरव रोशा प्रदीप रोशा रणधीर वालिया नरेंद्र वालिया सुभाष बलिया विजेंद्र वालिया उपस्थित रहे।