साईं बाबा की मूर्ति स्थापना का 14 वॉ वार्षिक उमंग और उत्साह से मनाया जाएगा : डॉ. मिश्रा

साईं बाबा की मूर्ति स्थापना का 14 वॉ वार्षिक उमंग और उत्साह से मनाया जाएगा : डॉ. मिश्रा
हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक संवाददाता – उमेश गर्ग।
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कुरुक्षेत्र : श्री दुर्गा देवी मदिर पिपली के पीठाधीश और मां दुर्गा चेरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष ज्योतिषाचार्य व वास्तु महर्षि डॉ. सुरेश मिश्रा ने बताया कि साईं बाबा की मूर्ति स्थापना 9 जून 2011 को हुई थी I इसलिए साईं बाबा की मूर्ति स्थापना का 14 वॉ वार्षिक महोत्सव 9 जून 2025 को भक्ति भावना से श्रद्धापूर्वक मनाया
जायेगा। इस उपलक्ष्य में सोमवार को प्रातः 10 बजे यज्ञ ,आरती और भक्तों में प्रसाद वितरण का कार्यक्रम श्री दुर्गा देवी मन्दिर पिपली के प्रांगण में आयोजित होगा I पुजारी पण्डित राहुल मिश्रा वैदिक मंत्रों से पूजा अर्चना और यज्ञ करवाएंगे।
सायंकाल 3: 30 बजे से आयोजित साईं संध्या में कुरुक्षेत्र के सुप्रसिद्ध गायक बब्बू चावला एवं पार्टी साईं बाबा की भेंटे सुनाएंगे। सभी श्रद्धालु भक्तों को साईं बाबा की मूर्ति स्थापना के 14वें वार्षिक दिवस की अग्रिम बहुत – बहुत हार्दिक शुभकामनाएं दी। समाजसेवी श्री केवल कृष्ण छाबड़ा और पवन छाबड़ा अपने परिवार सहित विशेष पूजा अर्चना करेंगे।
आप सभी अपने मित्रों और परिवार सहित सादर आमंत्रित है। आप सभी साईं बाबा और मां दुर्गा का आशीर्वाद लेकर पुण्य के भागी बने। इस शुभ अवसर पर भक्त सुशील तलवाड़, ऊषा सैनी, आरती गुप्ता, जोगन देवी,सरोज शर्मा और बिमला देवी आदि भक्तजन उपस्थित रहे। समर्थगुरु मैत्री संघ हिमाचल प्रदेश के जोनल संयोजक डॉ. मिश्रा ने बताया कि आदरणीय समर्थगुरू सिद्धार्थ औलिया कहते है कि सनातन धर्म में जीवित सदगुरू की बहुत मुख्य भूमिका होती है। सतयुग में भगवान शिव ने मां पार्वती को ध्यान और सुमिरन की शिक्षा प्रदान की थी। त्रेता युग में भगवान श्री राम ने अपने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र जी से ध्यान और सुमिरन की शिक्षा प्राप्त की थी। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण जी ने गुरु संदीपनी से आध्यात्मिक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त की थी।
कलियुग में भी बिना जीवित गुरु के भगवान की भक्ति और सुमिरन नही हो सकता। सदगुरू वही होता है जिसे परमात्मा का अनुभव हो और अपने शिष्यों को भी करवा सके। मानव जीवन 84 लाख योनियों के बाद अच्छे कर्म और भगवान की कृपा से ही मिलता हैं। ओंकार के द्वारा ही साधना हो सकती है। ओंकार अनुभवी जीवित सदगुरु ही अपने सुपात्र शिष्य को देता है।