बुजुर्गों का बढ़ता अनादर और तिरस्कार

भारतीय संस्कृति मूलतः अपने संस्कारों के लिए विश्वविश्रुत है।शायद ही ऐसा कोई देश धरती पर होगा जो भारतीय मूल्यों,परम्पराओं और संस्कारों के आगे नतमस्तक न होता हो।किन्तु बदलते परिवेश और आधुनिकता की दौड़ में अंग्रेजियत के चलते संस्कारविहीनता के प्रतिफल में नौजवान पुत्रों व पुत्रियों द्वारा अपने बुजुर्ग माता-पिता औरकि घर या समाज के अन्यान्य किसी भी उम्रदराज व्यक्ति के साथ आयेदिन होने वाले बर्ताव यह सोचने को विवश करते हैं कि क्या हमने अपने नैतिक व मानवीय मूल्यों की इतिश्री कर ली है याकि अभी समय रहते कुछ आत्ममंथन तथा सुधार के उपाय सम्भव हैं।जो भी हो समाज में बुजुर्गों के साथ होने वाली उत्पीड़नात्मक घटनाएं निंदनीय और दुखद हैं,जिनपर लगाम लगनी ही चाहिए।
सुभाषित रत्नानि में कहा गया है कि-
“अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धनते आयुर्विद्यायशोबलम।।”
अर्थात उम्र और योग्यतानुसार सबको अभिवादन करने से तथा अनुभवी व बुजुर्गों की नित्य सेवा करने से व्यक्ति की आयु,विद्या,यश और बल में निरंतर वृद्धि होती है।कदाचित जीवन के सांगोपांग व्याख्या करता यह श्लोक आज जस का तस है किंतु हम कहाँ से चलकर कहाँ तक आ गये हैं,यह आज के भौतिकतावादी संसार में मानव दिनोंदिन भूलता जा रहा है।जिसका परिणाम यह है कि आज घरों के सर्जनहार और सबका पालनपोषण करने वाले लोग वृद्ध होने पर अपने घरों के वाचमैन बनकर रह गए हैं।बात बात पर पुत्र,पौत्रों, पुत्रवधुओं और लोगों द्वारा इनका तिरस्कार किया जाना आमबात हो गयी है,जोकि त्रासद है।


बुजुर्गों की पीड़ा का वर्णन करते हुए राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान व इंदिरा अवार्ड प्राप्त शिक्षाविद ज्ञानसागर मिश्र ने लिखा है-
“घृणा अनादर तिरस्कार,
नितप्रति अपनों से पाता है।
पाला है जिसने पेट सभी का,
वह भूखा सो जाता है।।
किसको इतनी फुर्सत है-
उसके सँग मिलकर बैठे।
सब आपाधापी में खोये,
अपने भी अपनों से ऐंठे।।”
कदाचित भारतीय समाज में बुजुर्गों के साथ दिनोंदिन होते अनादर व तिरस्कार की घटनाएं अब असह्य हैं।


वस्तुतः किसी बड़े या श्रेष्ठ व्यक्ति को उसके कद,पद और उपलब्धियों तथा त्याग,समर्पण व सेवा के आधार पर दिया जाने वाला सम्मान आदर कहलाता है।किंतु जब सम्मान के बजाय अभिमान,दम्भ,संस्कारहीनता या क्रोधवश किसी श्रेष्ठ को यथोचित आदर देने के बजाय उसके प्रति असम्मानजनक व्यवहार का प्रदर्शन किया जाता है तो यह स्थिति अनादर कहलाती है।अनादर की पराकाष्ठा तिरस्कार होता है।जिसमें व्यक्ति अपने को सर्वशक्तिमान और सम्प्रभु मानकर सामने वाले को हेय और तुच्छ मानते हुए उसके व्यक्तित्व का अनादर करता है।यह स्थिति और भी विचलित करने वाली होती है।कहना अनुचित नहीं होगा कि आजकल भारतीय समाज में घरों के बुजुर्ग अपने ही घर में अपनों द्वारा ही तिरस्कृत किये जा रहे हैं,यह सोचनीय प्रश्न है।
प्रश्न जहाँतक बुजुर्गों के अपमान और तिरस्कार का है तो सबसे ज्यादा सोचनीय स्थिति उन घरों की है जिनका शिक्षा व सामाजिक स्तर बहुत ही उच्च या बहुत ही निम्न है।मध्यम वर्गीय परिवारों में यह येनकेन भारस्वरूप ढोया जा रहा है।कहावत है कि “फटहा कपड़ा और बहुरहा लड़िका समय पे काम आवत हैं”कदाचित यह कहावत अजाय के परिवेश को सौ फीसदी चरितार्थ करती हैं।आज घरों के कमाऊ पूत शहरों में बसने लगे हैं।पैतृक घर उन्हें अब उबाऊ और व्यर्थ लगने लगा है।लिहाजा शहरों के सीमित स्थान में उन्हें अपने माता-पिता के लिए कोई जगह नहीं बचती।फलतः माता-पिता और बाबा-दादी गांव के पुराने घरों के वाचमैन बनकर अपने बुढ़ापे पर रोने के लिए विवश हैं।हां, वे माता-पिता और बुजुर्ग अवश्य बदलते समय में भाग्यशाली हैं जिनकी कोई संतान किसी कारण से उनके साथ रहने को विवश है,भले ही चाहे वो बेरोजगार हों या फिर कोई छोटा मोटा व्यवसाय करते हों।
नौकरीशुदा पुत्र-पौत्र जहाँ बूढ़े माता-पिता और बाबा-दादी के अरमान होते हैं वहीं समस्या की मूल जड़ भी वही बनते जा रहे हैं,यह गम्भीर यक्ष प्रश्न है। धन कमाने वाले पुत्रों व पुत्रवधुओं द्वारा स्वयम को स्वेच्छाचारी मॉनते हुए आचरण करना जहां बुजुर्गों को खटकता है वहीं टकराहट बढ़ती है।अलबत्ता कहीं कहीं समझदार बुजुर्ग समय और परिस्थिति से तादात्म्य स्थापित करने का असफल प्रयास भी करते हैं किंतु जीवनभर जिन मूल्यों की रक्षा उन्होंने प्राणपण से की उनकी तिलांजलि देते हुए पुत्रों को देखकर वे बोल पड़ते हैं।यही उनकी फजीहत होने की जड़ बन जाती है,जोकि नौजवानों द्वारा तिरस्कार के रूप में दिखाई देती है।यहीकरण है कि शहरों में बढ़ते वृद्धाश्रम आज सोचने को विवश करते हैं।
बड़े बुजुर्गों के अपमान एवम तिरस्कार की मूल वजह संस्कारों का क्षरण होना है।समय के साथ अभिभावकों द्वारा भागमभाग में अपने पाल्यों को पर्याप्त समय न देना तथा अंग्रेजियत का वातावरण सृजित करना दिनोंदिन उन्हीं पर भारी पड़ता दिख रहा है।अतः समय रहते संस्कारों व मूल्यों से युक्त शिक्षा व्यवस्था ही इस समस्या का असली निदान है।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक

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