महर्षि दयानन्द सरस्वती पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी और स्वराज्य जैसे शब्दों का प्रयोग किया था : डा. श्रीप्रकाश मिश्र

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
महर्षि दयानन्द सरस्वती की जयंती के उलक्ष्य में मातृभूमि सेवा मिशन के तत्वावधान में मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा कार्यक्रम संपन्न।
कुरुक्षेत्र 23 फरवरी : प्राचीन वैदिक काल से ही मनुष्य मात्र का एक ही धर्म था और एक ही धर्मग्रन्थ था वेद। उसी की शिक्षाओं के अनुरूप जीवनयापन होता था। तब विश्व एक परिवार था और भारत विश्वगुरु माना जाता था। यहीं से सर्वत्र ज्ञान विज्ञान फैला था। समय बदला। वेदों की गलत व्याख्याएँ की जाने लगीं। वेद में जो था नहीं, स्वार्थवश भाष्यकारों को वह दिखने लगा। धीरे-धीरे वेदों की शिक्षाओं का लोप हो गया। विभिन्न मनुष्यों ने अपने-अपने ग्रन्थ रच डाले। अनेक मतमतान्तर प्रचलित हो गए। परिणाम निकला मानसिक अशान्ति, परस्पर द्वेष, संघर्ष और रक्तपात। समय ने सुखद करवट ली और महर्षि दयानन्द सदृश ऋषि ने वेदों का पुनरुद्धार कर एक नए युग का सूत्रपात किया । महर्षि दयानन्द ने वेदों को सब सत्यविद्याओं का पुस्तक घोषित कर पुनः वेद की ओर लौटने का निर्देश किया। अपने जीवन के अन्तिम दशक में वेद विषय में उन्होंने जो कार्य किया, वह स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। यह विचार महर्षि दयानन्द सरस्वती की जयंती के उलक्ष्य में मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किये। कार्यक्रम का शुभारम्भ मातृभूमि शिक्षा मंदिर के विद्यार्थियों द्वारा वैदिक मंत्रोच्चारण से हुआ।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने महर्षि दयानन्द के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा पुरूष नारी समानता के पक्षधर महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने स्त्री और पुरुष समानता के नियम की व्याख्या की। उन्होंने कहा ईश्वर के समीप स्त्री पुरुष दोनों बराबर है क्योंकि वह न्यायकारी है। उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुष को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जाए तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जाये। सामाजिक समानता के समर्थक स्वामी दयानंद सरस्वती एक महान समाज सुधारक थे। उनमें भरपूर जोश था, प्रखर बुद्धि थी और जब वह सामाजिक अन्याय देखते तो उनके हृदय में आग जल उठती थी। वे बार-बार कहते थे अगर आप आस्तिक हैं तो सभी आस्तिक भगवान के एक परिवार के सदस्य हैं। अगर आपका परमात्मा में विश्वास है तो प्रत्येक मनुष्य उसी परमात्मा की एक चिंगारी है। इसलिए आप प्रत्येक मानव-प्राणी को अवसर दीजिए कि वह अपने को पूर्ण बना सके। दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश जैसी कालजयी ग्रंथ की रचना की।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा महर्षि दयानन्द सरस्वती पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी और स्वराज्य जैसे शब्दों का प्रयोग किया
थी। देश के प्रति उनके मन में अगाध ममता थी। सत्य की तलाश में नगर, वन, पर्वत सभी जगह कहीं घूमते-घूमते उन्होंने जनता की दुर्दशा और जड़ता को देखा था। भारत राष्ट्र की दुर्दशा से स्वामी जी अत्यधिक आहत थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने में लगा दिया। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, गुजराती उनकी मातृभाषा थी, पर राष्ट्र की एकता को मजबूत करने हेतु उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से ही अपना उपदेश देना प्रारम्भ किया और इसी भाषा में अपनी पुस्तकें लिखी। हिन्दी भाषा के प्रति ऐसी अटूट निष्ठा किसी दूसरे भारतीय मनीषी या नेता में मिलना कठिन है।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा सच्चे ज्ञान की खोज में इधर उधर घूमने के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। बताया जाता है कि उन्होंने अपने ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए उनके घर का दरवाजा खटकटाया और फिर उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने स्वामी जी को वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द जी को छुट्टी दी मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ। स्वामी दयानंद सरस्वती जी वस्तु जगत और आध्यात्मिक जगत दोनों ही तरह के ज्ञान को महत्त्व प्रदान करते थे। वे वस्तु जगत के ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को सद्ज्ञान कहते हैं। लेकिन वे सद्ज्ञान को सर्वोच्च ज्ञान मानते हैं, जो कि वैदिक ग्रंथों में निहित है। पर हर ज्ञान को तर्क की कसौटी पर कसना दयानंद जी की विशेषता थी। राष्ट्रीयता के पोषक एवं आर्यसमाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती अपने उपदेशों में राष्ट्र प्रेम की भावना का संचार बार बार किया है। कार्यक्रम का समापन शांति पाठ से हुआ। कार्यक्रम में आश्रम के विद्यार्थी, सदस्य एवं शिक्षक उपस्थित रहे।