बुद्धिजीवियों का मौन और भारत की वैचारिक चुनौती

बुद्धिजीवियों का मौन और भारत की वैचारिक चुनौती
डॉ. राज नेहरू –विशेष कर्तव्य अधिकारी,
हरियाणा संपादक : वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
मुख्यमंत्री हरियाणा
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुआ आतंकी हमला सिर्फ एक सुरक्षा चुनौती नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्र की संप्रभुता, सम्मान और संयम की अग्निपरीक्षा थी। पाकिस्तान-प्रायोजित इस कायरतापूर्ण हमले में हमारे कई वीर सैनिक शहीद हुए और निर्दोष नागरिकों की जान गई। देश का हृदय इस त्रासदी से पीड़ा में डूबा था — और होना भी चाहिए था।
लेकिन दुर्भाग्यवश, एक खास वर्ग — जिसे हम प्रायः तथाकथित बुद्धिजीवियों के रूप में जानते हैं — फिर उसी पुराने ढर्रे पर उतर आया। आतंकियों की नृशंसता पर मौन साधने वाले ये लोग भारत की प्रतिक्रिया को नैतिकता, संयम और सहिष्णुता के चश्मे से देखने लगे। यह दोहरा व्यवहार अब न केवल विचलित करता है, बल्कि यह प्रश्न भी खड़ा करता है कि क्या ये स्वघोषित विचारक सचमुच तटस्थ हैं, या विचारधारा के चश्मे से देश की पीड़ा को देखते हैं?
जब भारत अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए कदम उठाता है, तो वही लोग जो हमलावरों के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहते, भारत से संयम की मांग करते हैं। कोई प्रोफेसर गीता का हवाला देता है, तो कोई सूफीवाद की शांति की दुहाई देता है — लेकिन ये सभी उस समय गूंगे क्यों हो जाते हैं जब हमारे सैनिकों के शव तिरंगे में लिपटकर घर लौटते हैं?
क्या गीता केवल भारत के लिए है, और युद्ध का सारा बोझ भी?
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध से हटने को नहीं कहा था, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने को प्रेरित किया था। संयम और सहनशीलता तब तक ही मूल्य हैं, जब तक वे हमें कायरता की ओर न ढकेलें।
भारत कभी भी युद्ध को प्राथमिकता नहीं देता। हमारे संस्कारों में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना है। लेकिन जब हमारे सैनिकों पर गोलियां चलें, नागरिकों का खून बहे और सीमा पार से रोज़ नफरत और बारूद बरसे, तो चुप्पी कायरता बन जाती है। ऐसे में जवाब देना केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य बन जाता है।
यह दुखद है कि भारत की आलोचना अब एक फैशन बन चुकी है — मीडिया स्पेस पाने का साधन, वैश्विक मंचों पर सराहना पाने का रास्ता, और राजनीतिक विमर्श में प्रासंगिक बने रहने का तरीका। कुछ लोगों की कथित तटस्थता, वस्तुतः वैचारिक पक्षधरता बन चुकी है, जिसमें भारत की कोई भी सख्त प्रतिक्रिया उन्हें “अतिरेक” लगती है, लेकिन आतंकियों के अपराध उन्हें “जटिल जियोपॉलिटिक्स” का हिस्सा दिखाई देते हैं।
इस पक्षपातपूर्ण सोच का एक और खतरनाक पहलू हमारे शिक्षण संस्थानों में पनप रहा है। हाल के वर्षों में कई ऐसे छात्र पकड़े गए हैं जो जासूसी, भारत विरोधी गतिविधियों या चरमपंथी संगठनों से सहानुभूति रखने के आरोप में घिरे हुए हैं। यह केवल सुरक्षा की नहीं, हमारी शैक्षणिक व्यवस्था की भी असफलता है। सवाल यह है कि क्या हम छात्रों को विचारशीलता सिखा रहे हैं या वैचारिक भ्रम?
यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब कुछ राजनीतिक दल भी ऐसे स्वरों को बल देने लगते हैं। हर आतंकी घटना के बाद भारत सरकार से ही सबूत मांगना, हमारी सेनाओं की कार्रवाई पर सवाल उठाना, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश को कठघरे में खड़ा करना — यह सब किसके हित में किया जा रहा है?
भारत अब बदल चुका है। यह 1947, 1965 या 2008 का भारत नहीं है। आज का भारत दृढ़ है, आत्मनिर्भर है, और अपनी सुरक्षा को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण रखता है। भारत शांति चाहता है, लेकिन वह शांति जो सम्मानजनक हो — न कि भीख में मिली।
देश की सुरक्षा पर बहस हो सकती है, लेकिन उस बहस की बुनियाद राष्ट्रभक्ति और ज़मीनी सच्चाइयों पर होनी चाहिए, न कि पश्चिमी नकल और वैचारिक पराजयवाद पर। हमारे असली शांति-दूत वे सैनिक हैं जो हर रोज़ सीमाओं पर खड़े रहते हैं — वे नहीं जो वातानुकूलित कमरों में बैठकर मोमबत्तियों और कविताओं से आतंकवाद का मुकाबला करना चाहते हैं।
हम सबको यह समझना होगा कि जब दुश्मन युद्ध थोपता है, तो जवाब देना नैतिक विकल्प नहीं, राष्ट्रीय दायित्व होता है।
अंततः, वायुसेना मार्शल भारती की वह बात याद आना स्वाभाविक है जो उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कही थी:
“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।”
यह केवल रामायण की चौपाई नहीं, भारत की नीति का सार है — जब शब्द असफल हो जाएं, तो शक्ति की भाषा ही शांति का मार्ग बनती है।
यह नया भारत अब चुप नहीं बैठेगा। जो भी उसकी संप्रभुता पर आंच लाएगा, उसे जवाब मिलेगा — स्पष्ट, सटीक और निर्णायक।
जय हिंद।