प्राचीन काल से ही शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को स्वावलंबी बनाना तथा भावी जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना था : डा. श्रीप्रकाश मिश्र

प्राचीन काल से ही शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को स्वावलंबी बनाना तथा भावी जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना था : डा. श्रीप्रकाश मिश्र।

हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।
दूरभाष – 9416191877

गुरु पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर मातृभूमि सेवा मिशन के तत्वाधान में सनातन वैदिक संस्कृति में गुरु शिष्य परम्परा का महत्व विषय पर ज्ञान संवाद कार्यक्रम संपन्न।

कुरुक्षेत्र 2 जुलाई : भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यधिक सम्मानित स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। गुरुकुल प्रणाली में गुरु-शिष्य सम्बंधों की अद्भुत गौरवमयी परम्परा विकसित की गयी थी । विश्वास, योग्यता, सम्मान, मानवीय और सामाजिक सम्बन्ध एवं निष्ठा के निर्मल धरातल पर स्थापित इस परम्परा में गुरु को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। यह विचार गुरु पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा आयोजित सनातन वैदिक संस्कृति में गुरु शिष्य परम्परा का महत्व विषय पर ज्ञान संवाद कार्यक्रम में मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने व्यक्त किये। कार्यक्रम का शुभारम्भ सरस्वती वंदना से हुआ। डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा भारत ही एक अकेला देश है, जहां ऐसी परंपरा थी। जब किसी को अंतर्ज्ञान प्राप्त होता है, तो वह किसी ऐसे व्यक्ति को खोजता है, जो पूरी तरह से समर्पित हो, जिसके लिए सत्य का ज्ञान अपनी जिंदगी से बढ़ कर हो। वह ऐसे समर्पित व्यक्ति को खोज कर उस तक अपना ज्ञान पहुंचाता है। यह दूसरा व्यक्ति फिर ऐसे ही किसी तीसरे व्यक्ति की खोज कर, उस तक वह ज्ञान पहुंचाता है। यह परम्परा आदिकाल से अनवरत चल रही है और इसी को भारत की को गुरु-शिष्य परंपरा कहा जाता है।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा भारतीय वांग्मय में हमें गुरुकुल व्यवस्था के विहंगम दिग्दर्शन होते हैं। वैदिक काल में शिक्षा को व्यवस्थित रूप देने के क्रम में सर्वप्रथम दो प्रश्न उभरे। प्रथम ‘क्या’ सिखाया जाए तथा द्वितीय ‘कैसे’ सिखाया जाए? इन प्रश्नों के अन्तर्गत उन विषयों का समावेश हुआ जिनके ज्ञान से मानव समाज में उपयोगी भूमिका निभाने में सक्षम हो सका। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। इनका संचालन राजाश्रय व जनसहयोग से होता था। इन गुरुकुलों में हर वर्ण के छात्र साथ पढ़ते थे। गरीब-अमीर में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा प्राचीन काल से ही शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को स्वावलंबी बनाना तथा भावी जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना था। शिक्षा पूरी होने पर बच्चे के अभिभावक अपनी श्रद्धा और सामथ्र्य के अनुसार गुरु को जो भी देते थे, वे उसे प्रेम से स्वीकार करते थे। वह गांवों की जागीर से लेकर लौंग के दो दाने तक कुछ भी हो सकता था। शिक्षा पूर्ण हो जाने पर गुरु शिष्य की परीक्षा लेते थे। शिष्य अपने सामथ्र्य अनुसार दीक्षा देते थे किंतु गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त कर दिए जाते थे और समावर्तन संस्कार संपन्न कर उसे अपने परिवार को भेज दिया जाता था।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा आज हर सामाजिक क्षेत्र के हर रिश्ते को बाजारवाद की नजर लग गयी है, तब गुरु-शिष्य के रिश्तों पर इसका असर न हो, ऐसा सोचना ही बेमानी होगी। नए जमाने के, नए मूल्यों ने हर रिश्ते पर बनावट, नकलीपन और स्वार्थों की एक ऐसी अदृश्य चादर ओढ़ दी है, जिसमें असली सूरत नजर ही नहीं आती।
आज आवश्यकता है हम अपनी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था और परम्परा से मार्गदर्शन लेकर भविष्य के भारत के लिए शिक्षा की व्यवस्था करे। इस अवसर पर प्रवीण आरोड़ा, आशा बठला, नीतू अरोड़ा सहित आश्रम के विद्यार्थी, सदस्य एवं गणमान्य जन उपस्थित रहें।

Read Article

Share Post

VVNEWS वैशवारा

Leave a Reply

Please rate

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

राज्य सरकार ने पद्म पुरस्कारों के लिए 15 अगस्त तक मांगे आवेदन : शांतनु शर्मा

Sun Jul 2 , 2023
राज्य सरकार ने पद्म पुरस्कारों के लिए 15 अगस्त तक मांगे आवेदन : शांतनु शर्मा। हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।दूरभाष – 9416191877 26 जनवरी 2024 को गणतंत्र दिवस पर प्रदान किए जाएंगे पद्म पुरस्कार।पद्म पुरस्कारों के लिए नामांकन व सिफारिशें राष्ट्रीय पुरस्कार पोर्टल पर प्राप्त की जाएगी ऑनलाइन। […]

You May Like

advertisement