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सेवा और सामाजिक सरोकार संघ के लिए सर्वोपरि : महेश जोशी

लेखक : महेश जोशी, महासचिव हरियाणा शाखा, भारतीय रेडक्रास सोसायटी।

कुरुक्षेत्र, वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक : सौ वर्ष की अपनी गौरव यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सेवा व सामाजिक सरोकार को प्राथमिकता देते हुए सदैव स्वयंसेवकों में मानवीय जीवन मूल्यों व सांस्कृतिक पुनर्जागरण के आधार पर” वसुधैव कुटुम्बकम” की अवधारणा को जीवंतता प्रदान करते हुए विश्व के लगभग 100 देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। इससे विश्व बंधुत्व की भावना भी बलवान हुई हैं। हिन्दुत्व की मूल अवधारणा के बल पर आज संघ सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वबोध व नागरिक अनुशासन के रूप में पंच परिवर्तन कर भविष्य में वैश्विक संतुलन में अपनी भूमिका सुनिश्चित करेगा।
सौ वर्ष पूर्व विजय दशमी के दिन 1925 में संघ की स्थापना के बाद शैशवकाल से अब तक अनेक झंझावतों को झेलते हुए निःस्वार्थ भाव से अपनी कार्य पद्वति व कार्य शैली के बल पर समाज के हर क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी उनके समर्पण भाव व संगठन कौशल को दर्शाता है। खेल-खेल में, दैनिक शाखा में, जाकर अनुशासन व संस्कार के बल पर अपने अहम को छोड़, पृहद परिपेक्ष्य में अपनी भूमिका निभाते हुए राष्ट्रीय भावों से ओत-प्रोत संघ के स्वयंसेवकों की टोली ने सदैव अपनी सकारात्मक भूमिका के बल पर तथा सामाजिक समरसता के मंत्र को अपना कर समाज के हर क्षेत्र में नेतृत्व प्रदान किया है।
संघ का दृष्टिकोण सदैव यह रहा है कि समाज की सबसे छोटी इकाई तक राष्ट्रीय चेतना पहुंचे और हर व्यक्ति ‘राष्ट्रहित सर्वोपरि’ की भावना से कार्य करे। इसी आधार पर सेवा और सामाजिक सरोकार आरएसएस की प्राथमिकता बन गए — क्योंकि राष्ट्र का उत्थान तभी संभव है जब समाज संगठित, शिक्षित, आत्मनिर्भर और संस्कारित हो। भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पुनर्जागरण की यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और विशिष्ट रही है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर में स्थापित यह संगठन आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन चुका है। संघ का मूल उद्देश्य केवल संगठन निर्माण या वैचारिक प्रचार नहीं, बल्कि एक ऐसा राष्ट्रनिर्माण है जो सेवा, एकता और स्वाभिमान के आदर्शों पर आधारित हो। हिन्दुत्व की संकीर्ण मानसिकताओं को दूर करके जीवन शैली के रूप में विकसित होते हुए भारत को विश्वगुरु के रूप में आरूढ़ होता देखना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रत्येक स्वयंसेवक का सपना रहा है। संघ के शताब्दी वर्ष में जहां एक और विश्व के सबसे बडे स्वयंसेवी संगठन के रूप में संघ की सहज स्वीकारोवित विश्व को एक अनूठी देन है, वहीं सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित स्वयंसेवकों की एक अविरल श्रृंखला अपनी एक विशेष पहचान सावित करने में सफल रही है।
“संघे शक्त्ति कलीयुगेः” का भाव जगाकर जीवन मूल्यों के बल पर एक सशक्त संगठन का निर्माण संघ की कार्यशैली की एक विशेषता है। स्वयंसेवकों के शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के द्वारा उनके सर्वांगीण विकास को संघ ने हमेशा वरीयता दी है। ताकि समर्पित स्वयंसेवकों की श्रृंखला के बल पर समाज के हर क्षेत्र में प्रभावी संगठन दृष्यमान हों। संघ की प्रेरणा से अखिल भारतीय विधार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, भारत विकास परिषद, सेवा भारती, भारतीय किसान संघ, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम सहित अनेकों संगठन अपना प्रभाव सिद्ध करके महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।
1947 के विभाजन के दौरान राहत शिविरों से शुरू होकर 1962, 1965, 1971 के युद्ध में स्वयंसेवकों की भूमिका ना केवल सराहनीय रही अपितु दशकों में आई भूकंप, वाळ, महामारी व अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय संघ के स्वयंसेवकों के कार्यों ने अपनी विशेष पहचान बनाई है तथा सेवा कार्यों के बल पर अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हुए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। संघ का दृष्टिकोण सदैव यह रहा है कि समाज की सबसे छोटी इकाई तक राष्ट्रीय चेतना पहुंचे और हर व्यक्ति ‘राष्ट्रहित सर्वोपरि’ की भावना से कार्य करे। इसी आधार पर सेवा और सामाजिक सरोकार आरएसएस की प्राथमिकता बन गए – क्योंकि राष्ट्र का उत्थान तभी संभव है जब समाज संगठित, शिक्षित, आत्मनिर्भर और संस्कारित हो।
एकात्म मानव दर्शन के सिद्धांत को जीवंत रूप देते हुए संघ ने समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के उत्थान के द्वारा समाज के सर्वांगीण विकास को प्राथमिकता देते हुए समाज के सर्वांगीण विकास को सदैव अहमियत दी है। इसके साथ ही स्वदेशी की अवधारणा के बल पर भारत को आर्थिक महाशवित के रूप में विकसित करना विशेष अहमियत रखता है।
20वीं सदी के आरंभिक दशक में भारत के इतिहास में आत्म चिन्तन और पुनर्निमाण के काल के रूप में देखे जाते है। स्वाधीनता संग्राम में राजनैतिक चेतना तो जगाई लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक एकता व आत्मविश्वास की कमी नजर आई। इसी को देखते हुए संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराव हेडगेवार जो स्वयं स्वाधीनता आन्दोलन से जुडे रहे। उनका दृढ़ विश्वास था कि जब तक समाज संगठित नहीं होगा तब तक राजनैतिक रूप से मिलने वाली स्वतंत्रता टिकाऊ नहीं हो सकती।

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