वसंत पंचमी सनातन धर्मावलंबियों का एक विशेष पर्व है
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बसंत पंचमी: चरैवेति चरैवेति
भारतवर्ष आदिकाल से एक उत्सवधर्मी देश रहा है।इन उत्सवों ने ही सांस्कृतिक,पौराणिक और सामाजिक एकता की जिस मजबूत कड़ी का सूत्रपात किया है उसी का प्रतिफल है कि आज भी भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत यहां लोगों के आचरणों में झलकती है और देश की एकता अखंडता को बल प्रदान करती है।कदाचित वसंत पंचमी का पर्व जहाँ ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा-साहित्य तथा उपासना की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है वहीं इसके वैज्ञानिक कारण भी इसकी श्रेष्ठता और उपादेयता को प्रतिपादित करते हैं।
वसंत पंचमी सनातन धर्मावलंबियों का एक विशेष पर्व है।इस दिन ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हँसवाहिनी माता सरस्वती का प्राकट्योत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।
राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित ब्रह्मलीन सन्तशिरोमणि ज्ञानी जी महाराज के शिष्य आचार्य हरिहर नाथ मिश्र के शब्दों में व्याकरणशास्त्र की दृष्टि में भी पौराणिकता के पुट लिए बसंत पंचमी का दिन अत्यंत खास होता है।उनके अनुसार माघ महीने की पंचमी तिथि को ज्ञान की देवी सरस्वती का धरा पर अवतरण अज्ञान का नाशक और प्राणियों की चेतना का कारण हैं।यही कारण है कि विद्या,बुद्धि,गीत,संगीत और उपासना की दृष्टि से बसंत पंचमी बसंत ऋतु के ऋतुराज होने की भावना को और भी पुष्ट करता है।
शास्त्रों में माघ को जहाँ विष्णु का माह तो वहीं अज्ञान का पर्याय भी माना जाता है।कहा गया है कि बससि चर्चा अज्ञानार्थे अपि भवति अर्थात बसि शब्द की चर्चा अज्ञान के अर्थ में भी की जाती है।किंतु माघ रूपी अज्ञान के महीने की पंचमी तिथि को ज्ञान की देवी सरस्वती का प्राकट्य जहाँ अज्ञान का नाशक है वहीं प्राणियों की चेतना का कारक है।इसप्रकार अज्ञान के नाश को ही बसंत कहा जाता है।इस प्रकार बससि चर्चा अज्ञानार्थे अपि भवति,तस्य एव अंत: इति कथ्यते बसंत: कहकर विद्वानों ने बसंत को अज्ञान का संहारक माना है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शास्त्रों में दो सरस्वती देवियों का वर्णन किया गया है।एक की उत्तपत्ति ब्रह्म(ईश्वर) और दूसरी की सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी से हुई है।एक हँसवाहिनी तो दूसरी कमलारूढा हैं।ब्रह्म अर्थात ईश्वर से उत्तपन्न हँसवाहिनी सरस्वती का विवाह स्वयम ब्रह्मा जी से जबकि ब्रह्मा से उत्तपन्न महासरस्वती का श्रीविष्णु से हुआ है।शास्त्रों में सरस्वती नामधारी पुण्यसलिला नदी का भी वर्णन है।जिनकी अदृश्य और गंगा तथा यमुना के जलधाराओं के संगमस्थल प्रयागराज में खिचड़ी,मौनी अमावस्या,वसंत पंचमी तथा शिवरात्रि व माघी पूर्णिमा के दिन स्नानादि का वृहद वर्णन मिलता है।मान्यताओं के मुताबिक सृष्टि की संरचना के बावजूद प्राणियों में चेतनता का भाव न होने से सारा जड़ चेतन संज्ञा शून्य था।एकबार रज गुण के भोग से बनी सृष्टि को देखने स्वयम ब्रह्मा जी विचरण कर रहे थे।उन्हें सारा जगत मूक,नीरस और निस्तेज प्रतीत हुआ।अतः विष्णु के आदेश से चैतन्यता हेतु ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल छिड़का ।जिससे नाद अर्थात स्वर उत्तपन्न हुआ और अत्यंत मधुर ध्वनि मुखरित हुई और जड़ चेतन को वाणी की प्राप्ति हुई।यही कारण है कि सरस नाद अर्थात ध्वनि और वाणी के मेल के चलते ही सरस्वती को वाणी नाम से भी जाना जाता है।इन्हें वाग्देवी भी कहते हैं।जिससे नाद और चेतनता की प्रतीक देवी को सरस्वती नाम से सम्बोधित किया गया।
बसंत का वर्णन स्वयम गीता में लीलाधर श्रीकृष्ण ने ऋतुनां कुसुमाकर: तथा हिंदी कवियों ने ‘सखि आयो बसंत ऋतून को कन्त’ कहते हुए किया है।माघ माह की पंचमी तिथि से ही प्रारम्भ होने वाले ऋतुराज बसंत को काम का उद्दीपक और जड़ चेतन में नई ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है।जिसके कारण वसंत पंचमी को मदनोत्सव भी कहा जाता है।इसीतिथि से मधुमास की शुरुआत होती है।पतझड़ के पश्चात वृक्षों की शाखाएं फिर से पुष्वित व पल्लवित होती हैं।हरप्रकार के विद्याध्ययन व परीक्षाओं के लिए सर्वाधिक अनुकूल समय वसंत में ही आता है।अतः बसंत पंचमी की तिथि अज्ञान का नाशक और शीत ऋतु के भयंकर प्रकोप से पीड़ित जनमानस के लिए वातावरण में नव संचेतना लेकर आती है।
बसंत पंचमी सनातन हिंदुओं का एक परम पुनीत पर्व भी है।स्नान,दान,गृहारम्भ,विवाह,विद्याध्ययन,मुंडन,उपनयन और अन्यान्य सभी प्रकार के शुभकार्य इसदिन बिना मुहूर्त विचार के ही किये जाते हैं।इसदिन सरस्वती देवी की उपासना विद्यार्थियों को उनके लक्ष्यों तक पहुंचाने में सहायक बनती है।प्रयागराज में प्रतिवर्ष एक माह तक चलने वाले माघ मेले और अयोध्या,काशी,उज्जैन, हरिद्वार तथा नासिक सहित सभी पुनीत नदियों में इस दिन करोड़ों लोग स्नान-दान करते हैं।