भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकारों पर जाति आधारित जनगणना कराने को दबाव बढ़ाडा. गिरीश

बिहार के बाद अब तेलंगाना में जातिगत गणना
बिहार के बाद अब तेलंगाना में जातिगत जनगणना संपन्न होने के बाद उसके आंकड़े जारी किये गये हैं। इससे एनडीए की केन्द्र सरकार और भाजपा नीत राज्य सरकारों पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बढ़ गया है। साथ ही इसने सामाजिक आर्थिक परिवर्तन को धरातल पर उतारने संबंधी कई संभावनाएं पैदा कर दी हैं। आंकड़े जारी होते ही इस संबंध में यद्यपि कई विवाद भी सामने आने लगे हैं। फिर भी इसका विश्लेषण और मूल्यांकन शुरू हो गया है।
ये दोनों ही राज्य भौगोलिक रूप से यद्यपि एक दूसरे से काफी फासले पर हैं। एक देश के धुर उत्तर में है तो दूसरा दक्षिणवर्ती राज्य है। लेकिन दोनों के कई आंकड़े लगभग समान तो हैं ही, प्रचलित धारणाओं से भी बहुत भिन्न नहीं हैं। साथ ही इन आंकड़ों के सामने आने से अनेक तरह के भ्रमों पर से भी चादर हटी है। पर इतना तो तय है कि इनके आधार पर राजनैतिक- आर्थिक और सामाजिक फैसले लेने में आसानी अवश्य होगी। बशर्ते कि फैसले लेने वालों की इच्छाशक्ति हो।
तेलंगाना का यह जातिगत सर्वेक्षण नवंबर और दिसंबर 2024 के दरम्यान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायधीश श्री शमीम अख्तर की अध्यक्षता वाले आयोग ने किया था, जिसकी रिपोर्ट मंत्री श्री एन. उत्तम कुमार रेड्डी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट उपसमिति को सौंपी गयी। उपर्युक्त मंत्री ने 3 फरबरी 2025 को इन आंकड़ों को सार्वजनिक कर दिया।
तेलंगाना के जातिगत सर्वेक्षण के अनुसार राज्य की 56.33 प्रतिशत आबादी पिछड़ा वर्ग ( ओबीसी ) से संबन्धित है, जिसमें 10.08 प्रतिशत मुस्लिम ओबीसी भी शामिल हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्होने ईसाई धर्म अपना लिया है। तेलंगाना में अनुसूचित जाति के लोगों की आबादी 17.45 प्रतिशत है तो अनुसूचित जनजातियों की आबादी 10.45 प्रतिशत है। सामान्य जातियों की आबादी वहां 15.79 प्रतिशत है।
इन आंकड़ों के जारी होते ही वहाँ राजनीति भी शुरू हो गयी है। तेलंगाना की दो विपक्षी पार्टियों- भारत राष्ट्र समिति ( BRS ) और भारतीय जनता पार्टी ( BJP ) ने कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने आंकड़ों में अपनी सुविधानुसार खेल किया है। भाजपा का आरोप है कि इस सर्वेक्षण में पिछड़ी जातियों की संख्या को जानबूझ कर घटा दिया है और मुस्लिम्स को पिछड़ी जातियों में शामिल करने की साजिश रची गयी है। वहीं बीआरएस का आरोप है कि उसकी सरकार द्वारा कराये गये ‘समग्र कुटुम्ब सर्वे’ की तुलना में पिछड़ों की संख्या 5.5 प्रतिशत ( 22 लाख ) कम कर दी गई है। कांग्रेस सरकार ने इस पर सफाई भी पेश कर दी है।
बिहार की जातिगत जनगणना 2023 में हुयी थी। यहां पिछड़ा वर्ग की आबादी 63.13 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजाति की आबादी यहां मात्र 1.68 प्रतिशत है जबकि सामान्य जातियों की आबादी 15.52 प्रतिशत है। तेलंगाना और बिहार की जाति संख्या में थोड़ा अंतर इसलिए दिखाई पड़ रहा है कि बिहार के विभाजन से पिछड़ा वर्ग बहुल इलाका बिहार के पास रह गया तो अनुसूचित जनजाति बहुल इलाका झारखंड राज्य के पास चला गया। अतएव बिहार में ओबीसी का अनुपात अधिक है और अनुसूचित जनजातियों का अनुपात कम है।
स्पष्ट है कि विशाल आकार के इस देश का जाति- विन्यास एक दूसरे के दूरवर्ती क्षेत्रों में भी काफी समानता लिये हुये है। मुस्लिमों की आबादी के मामले में भी दोनों राज्यों में समानता है।
इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये राष्ट्रीय स्तर पर पूर्व में किए गये सर्वेक्षणों से भी मेल खाते हैं। ये ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ के अनुमानों और 1931 में आयोजित आधिकारिक जाति जनगणना के भी अनुरूप हैं। ज्ञातव्य हो कि अपने देश में अंतिम जाति जनगणना अंग्रेजों के समय 1931 में हुयी थी। आज भी जातियों की संख्या के संबंध में 1931 की जनगणना के आंकड़ों का ही सहारा लिया जाता है। ज्ञात हो कि 1931 की जनगणना के अनुसार, देश में 52 प्रतिशत लोग पिछड़ा वर्ग से थे। ये आंकड़े आज भी कमोवेश उतने ही हैं।
बिहार और तेलंगाना की जाति जनगणना के ये ताजा आंकड़े कुछ तथ्यों को पूरी तरह स्पष्ट कर देते हैं। पहला यह कि देश में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी समग्रता में 50 प्रतिशत से अधिक है। दूसरा- अनुसूचित जाति और जनजातियों दोनों आबादियों का कुल अनुपात 30 प्रतिशत के आसपास है। तीसरा- सामान्य श्रेणी की जातियों की आबादी 20 प्रतिशत के भीतर है। तेलंगाना में सामान्य श्रेणी के मुसलमानों की आबादी 2.48 प्रतिशत है। यदि इसे भी सामान्य जाति की श्रेणी में जोड़ दिया जाये तब भी सामान्य जातियों की आबादी 22 प्रतिशत के आस पास तक ही जाती है।
यहां हम यह भी बतला दें कि आंध्र प्रदेश में भी जातिगत सर्वेक्षण चल रहा है और अन्य राज्यों में भी इसकी मांग ज़ोर पकड़ती जा रही है। इससे भाजपा शासित राज्य सरकारों पर जातिगत सर्वेक्षण कराने का दबाव बढ़ गया है। पर सर्वाधिक दबाव इस बात के लिये है कि देश की सामान्य जनगणना तत्काल शुरू हो और उसके तहत ही जातिगत जनगणना हो।
जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि इन आंकड़ों के आधार पर कई संभावनाओं पर चर्चा अवश्यंभावी है। क्योंकि वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में हम क्रीमीलेयर के सवाल पर अधिक चर्चा नहीं कर सकते, लेकिन जिन्हें विकास की मुख्यधारा में आने का अवसर नहीं मिला उस पर तो चर्चा आगे बढ़ेगी ही। इनमें से जो समुदाय सामाजिक और शैक्षिक रूप से अभी भी पिछड़े हुये हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाना ही होगा। उन्हें मुख्य धारा में लाये बिना समेकित विकास कठिन है। शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में उनके लिए अवसर खोलने होंगे। पिछड़े मुस्लिमों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। यह वर्गीय द्रष्टि से भी उचित होगा। क्योंकि कामकाजी वर्ग भी पिछड़ों, पिछड़े मुस्लिमों, अति पिछड़ों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों से अधिक आते हैं।
साथ ही हमें तेजी से हो रहे आर्थिक परिवर्तनों को भी संज्ञान में लेना होगा। कृषि भूमि के आपसी बंटवारे से जोतें छोटी दर छोटी होती जा रही हैं। इससे किसानों का एक भाग भूमिहीन की श्रेणी में आ गया है। भूमंडलीकरण, नोटबंदी, कोरोना महामारीजनित दुष्प्रभावों और रुपये की कीमत में हुयी अभूतपूर्व गिरावट जैसे कारकों के चलते सामान्य जातियों का एक भाग भी दयनीय दशा में पहुंच चुका है। व्यावहारिक और सोद्देश्य सामाजिक न्याय को वजूद में लाने को ऐसे सभी कारकों को भी ध्यान में रखना होगा।
जातिगत सर्वेक्षण से निकले आंकड़े यद्यपि प्रचलित अनुमानों से भिन्न नहीं हैं। पर दो राज्यों द्वारा ये सर्वेक्षण करा देने और अन्य एक राज्य में जारी रहने से केन्द्र सरकार के ऊपर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बड़ गया है। वास्तव में इन सर्वेक्षणों ने जातिगत जनगणना की मांग के लिये उत्प्रेरक का काम किया है। सच कहा जाये तो सर्वेक्षण ने इस मुद्दे को देश की राजनीति के केन्द्र में ला दिया है।
अब अगर केन्द्र सरकार जातिगत जनगणना कराने अथवा उसे कुछ समय तक टालने का प्रयास करती है तो अवश्य ही उसे इसका खामियाजा भुगतना होगा। निश्चय ही इससे ये धारणा मजबूत होगी कि भाजपा सामाजिक शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के प्रति संवेदनशील नहीं है। धर्म की आड़ में लोगों को भ्रमित करने का उसका षडयंत्र तार तार हो सकता है।
इस मुद्दे पर तमाम बाहरी और आंतरिक दबाव झेल रही भाजपा नीत केन्द्र सरकार के सामने एक संकट यह भी है कि यदि वह जातिगत जनगणना कराने का फैसला लेती है तो इसके लिये लगातार मांग उठाती रही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं अन्य विपक्षी पार्टियां इसे अपनी जीत के रूप में पेश करेंगीं। दूसरों की उपलब्धियों को अपनी झोली में डालने की आदी बन चुकी भाजपा भला इसे कैसे बर्दाश्त कर पायेगी। भाजपा हर हाल में विपक्षी दलों को इसका श्रेय देने से बचना चाहेगी।
जातिगत जनगणना कराने को केन्द्र सरकार पर विपक्षी दलों का दबाव पहले से ही काफी अधिक है। गत दिनों में यह और भी तीव्र हुआ है। पर अब एक कांग्रेस शासित राज्य द्वारा जातिगत आंकड़े जारी करने से इस दबाव का और भी बढ़ना अवश्यंभावी है।
समय और स्थितियों का तकाजा यह है कि विपक्षी दलों को इस दबाव को अब और तेज कर देना चाहिए। इसके लिये जन लामबन्दी और आंदोलन तेज करने की फौरी जरूरत है। इंडिया गठजोड़ को भी इसे मुख्य मुद्दा बनाने में देरी नहीं करनी चाहिये। वक्फ बिल, कश्मीर को राज्य का दर्जा, निरंतर गिरती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य, महंगाई, लोकतन्त्र और संविधान की रक्षा, शासकीय हिंसा और आपसी सौहार्द जैसे सवालों के साथ संयुक्त संघर्ष चलाया जाना चाहिये।
तभी हम सामाजिक न्याय को धरातल पर उतार सकते हैं। सामाजिक न्याय का संघर्ष ही एनडीए सरकार और आरएसएस के फासीवाद की ओर बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है।