Uncategorized

निष्ठाओं को ठेंगा दिखाती राजनैतिक पार्टियां

निष्ठाओं को ठेंगा दिखाती राजनैतिक पार्टियां

अम्बेडकर नगर || लोकतंत्र में वैचारिक अंतर्विरोधों और एक ही मुद्दे को अलग-अलग नजरिये से देखने के आधार पर ही पक्ष-विपक्ष तथा एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों का उदय होता है।इसप्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक राजनैतिक पार्टी की अपनी एक विशेष और अन्य पार्टियों से अलग रीति-नीति होती है।जिसके समर्थन करने वाले लोग अपनी अपनी पार्टियों के कार्यकर्ता माने जाते हैं।जब ऐसे कार्यकर्ता विभिन्न उच्चावच्चों में भी अपनी पार्टियों का त्याग नहीं करते तथा सदैव शीर्ष नेतृत्व में आस्था रखते हुए हरप्रकार के आंदोलनों व कार्यक्रमों में बढ़चढ़कर शरीक होते हैं तो इन्हें ही निष्ठावान कार्यकर्ता या नेता कहा जाता है।प्रत्येक पार्टी में उनके निष्ठावान कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों का एक निश्चित कैडर व सम्मान भी होता है किंतु हालिया के दशकों में सत्ताप्राप्ति की लोलुपता में राजनैतिक दलों ने जिसतरह से अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए अन्य दलों से आये दलबदलुओं को चुनावों में प्रत्याशी बनाना शुरू किया है,उससे यह स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होता है कि अब दलीय निष्ठा ठेंगें पर है और विचारधाराओं का मतलब बेमानी है।
विचारधाराओं का मतभेद होना लोकतांत्रिक देश में स्वस्थ लोकतंत्र की नींव होता है।यही वो गूढ रहस्य होता है जिसके चलते संसद में लोककल्याण और देशहित के मुद्दों पर तार्किक व सार्थक बहस को बढ़ावा देता है।जिससे सरकारें सदैव फूंक फूंक कर कदम रखती हैं।इसप्रकार लोकतंत्र के लिए जहाँ एक से अधिक राजनैतिक दलों का होना अनिवार्य है वहीं किसी भी दल के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज अति महत्त्वपूर्ण होती है।जिसके अभाव में दलों का कोई वजूद नहीं रह सकता।किन्तु कभी सत्ताप्राप्ति के लिए विधायकों व सांसदों की होने वाली हॉर्स ट्रेडिंग अब चुनावों के पूर्व ही जातिगत समीकरणों को साधते हुए दलबदलुओं को टिकट देकर अपने निष्ठावान व सक्षम पदाधिकारियों का तिरस्कार किया जाना दिनोंदिन बढ़ने की प्रवृत्ति जहाँ चुनावों की गरिमा को धूमिल करने लगी है वहीं राजनैतिक दलों का भी वजूद खतरे में पड़ता दिख सा रहा है।बावजूद इसके भी आज प्रत्येक दलों के समर्पित कार्यकर्ता स्वयम को ठगा ठगा सा महसूस करने को विवश है।
दलीय निष्ठा को तारतार होते देखने के लिए उत्तर प्रदेश से बेहतर कोई अन्य उदाहरण हो ही नहीं सकता।हालिया दिनों में भाजपा से सपा में शामिल पूर्व मंत्री स्वामीप्रसाद मौर्य तो दलीय निष्ठा के सौदागर कहे जा सकते हैं।कभी लोकदल,जनतादल फिर बसपा और भाजपा तथा अब सपा की साईकल पर सवार स्वामी प्रसाद स्वयम को मौर्य,कुशवाहा और शाक्य समाजों का ठेकेदार मानते हैं।जबकि सत्य तो यह है कि इनके भाग्य का पिटारा बसपा में ही खुल अन्यथा इनकी किस्मत सदैव हारने की ही रही है।इसीप्रकार कभी बसपा के कद्दावर नेता मानेजाने वाले ब्रजेश पाठक,त्रिभुवनदत्त, लालजी वर्मा,रामअचल राजभर,राकेश पांडेय और अन्य बहुत से नेतागण आज दलीय निष्ठा को ठेंगा दिखाते हुए स्वयमसिद्धि हेतु समाजवादी पार्टी के हमसफ़र बन रहे हैं।अब प्रश्न यह उठता है कि जिस समाजवादी पार्टी को पालने पोषने में इन लोगों का कोई योगदान नहीं उसी के ये लोग शीर्ष नेता बन रहे हैं।ऐसे में उन समर्पित नेताओं व पदधिकारियोंबक क्या होगा जो समर्पित भाव से पार्टी को मजबूत करने के लिए दिनरात एक किये हुए थे।कहना अनुचित नहीं होगा कि दलबदलुओं को चुनावों में टिकट दिया जाना लोकतंत्र का गला घोंटने से कमतर नहीं है।यही वो कारण है जिसके चलते आज राजनैतिक मूल्यों का तेजी से क्षरण हो रहा है और भ्रष्टाचार तथा कमीशनबाजी को बढ़ावा मिल रहा है।
निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने में भारतीय जनता पार्टी भी कम जिम्मेदार नहीं है।कभी भाजपा एक दल नहीं विचार है कहलाने वाली पार्टी हुआ करती थी।उस समय अटल,आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की तिकड़ी की बातें ही भाजपा की आचरण संहिता हुआ करती थी।तब राजनैतिक व मानवीय मूल्यों के कद्रदान भी थे और उनपर बलिदान होने वाले समर्पित लोग भी थे।जिसका परिणाम ही कहा जायेगा कि कभी एक वोट से सरकार गंवाने वाली भाजपा आज पूर्ण बहुमत में केंद्र और उत्तर प्रदेश में काबिज है।किंतु अटल जी के जमाने की भाजपा और आज की भाजपा में जमीन आसमान का फर्क है।आज भाजपा येनकेन सत्ता प्राप्ति की इच्छुक लगती है।इसे महबूबा मुफ़्ती से भी गठबंधन करने में गुरेज नहीं होता।यह किसी भी दल के नेता को अपनी सदस्यता प्रदानकर राजनीति की वैतरणी पार करने को उद्यत दिखती है।जिससे यहां भी निष्ठावान कार्यकर्ता अपने को ठगा ठगा ही महसूस कर रहे हैं।
निष्ठावान कार्यकर्ताओं को जहाँतक तरजीह देने की बात है तो बसपा अन्य दलों से आगे है।किंतु जब यही निष्ठावान कार्यकर्ता चुनावों में पार्टी का टिकट मांगने लगता है तो उसे अपनी औकात पता चल जाती है।पैसा के बदले टिकट यह बसपा का वास्तविक सिद्धांत है।कभी बाबू सिंह कुशवाहा, स्वामी प्रसाद मौर्य,नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे कद्दावर नेता बसपा के लिए प्रत्याशियों से उगाही करने के ही मामले में कुख्यात रहे हैं।ये बात और है कि आजकल ये लोग फिर खादी की आड़ में पाकदामन बनकर जातीयता की गंगा में नहाकर फिर से सत्ताप्राप्ति का ख्वाब देख रहे हैं।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम की साक्षी कांग्रेस आज जहाँ रेत में अस्तित्व तलाश कर रही है वहीं यह भी अन्य दलों से आये जातीय व धनाढ्य नेताओं को अपना टिकट देती जा रही है।जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि अब निष्ठावान कार्यकर्ताओं का दौर नहीं रहा।आज की सियासत जयंत चौधरी,चंद्रबाबू नायडू,ओम प्रकाश राजभर,कृष्णा पटेल और अन्य छोटे बड़े क्षेत्रीय दलों के राजभोग का दौर है।
इसप्रकार सारसंक्षेप में यह कहना प्रासङ्गिक है कि अब किसी भी दल के अंदर कोई विचारधारा जैसी बात नहीं रह गयी है।प्रत्येक दल येनकेन सत्ताप्राप्ति तक ही स्वयम को सीमित करता जा रहा है।लिहाज़ा अपराधियों,माफियाओं और धनकुबेरों की चांदी है जबकि प्रत्येक दलों के समर्पित कार्यकर्ता अन्नदाता किसानों की तरह अपनी बदहाली पर आँसू बहाने को विवश है औरकि अपनी पार्टी के नेताओं का जयकारा लगाना उनकी अनिच्छा के बावजूद मजबूरी है।आखिर निष्ठावान कार्यकर्ता जाए तो जाए कहाँ?यह विचारणीय है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button