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चतुर्मास का विज्ञान, व्यवस्था और हम क्यों नहीं करते सुदूर की यात्राएं

चतुर्मास का विज्ञान, व्यवस्था और हम क्यों नहीं करते सुदूर की यात्राएं

हरियाणा संपादक – वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक दूरभाष – 94161 91877

6 जुलाई से 2 नवम्बर।

पानीपत : शास्त्री आयुर्वेदिक अस्पताल के संचालक एवं प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डॉ. महेंद्र शर्मा ने चतुर्मास पर विस्तृत जानकारी देते हुए बताया कि हम लोगों ने धर्म को केवल कथासमारोहों को पंडालों की भव्यता, नाच, गाना और लंगर तक ही सीमित कर रखा है, कथानकों से आम जनमानस का कोई विशेष सरोकार नहीं रहा। जबकि हरिशयनी एकादशी से हरिप्रबोधिनी एकादशी पर्यंत के चार माह आध्यात्मिक, कायिक, मानसिक और पर्यावरण संतुलन बनाए रखने के लिए स्वाध्याय, सत्संग, संतमहापुरुषों के संग की नितांत आवश्यकता है। यद्यपि राजनीति तो ब्राह्मण के रक्तबीज ( डीएनए ) है, हम सभी लिखते और करते है। लेकिन इस शूद्र राजनीति से मिलता क्या है ?
ज्ञानं तेSहं स विज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोSन्यज्ज्ञातव्यम वशिष्यते।। गीता 7/2
भगवान श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को धर्म के तत्व को विज्ञान के अनुसार समझा रहे हैं जिसको जानने के बाद कुछ भी संशय नहीं रह जाता। पर्यावरणीय विज्ञान चर्चा के संग पहले पंचांग नियमन का अध्ययन करें कि कालपुरुष की जन्मकुण्डली के चतुर्थ सुखभाव, षष्ठ रोगभाव , सप्तम कलत्रभाव और अष्टम आयुषभाव में सूर्य की उपस्थिति सुखद नहीं मानी जाती यहां तक पंचम भाव का सूर्य भी शुभ कार्यों में पूजा का माना जाता है। इन चार महीनों को चातुर्मास कहते हैं जिनमें अत्यंत तीव्र उष्णता गर्मी, ताप से आर्द्रता, नमी में प्रवेश करते हैं तो उपरी और नीचे के तापमान में अधिक अन्तर न होने से उमस के कारण अनेक प्रकार की विषाणु वायरस जन्म लेते हैं जिनके कारण अज्ञात प्रकार की बेनाम बीमारियां फैलती हैं और सभी लोग किसी न किसी प्रकार के संक्रमण का शिकार हो जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु के पश्चात वर्षा ऋतु का प्रवेश है।
वर्षाकाल में जब खूब जोर से वर्षा होती है तो भयंकर बाढ़ की स्थितियां बन जाती है, सारा भूमंडल जल की प्रचुरता से पीड़ित हो जाता है, वायरल बीमारियों और उमस के कारण शरीर तो पहले दुखी होता है शेष कमी जल की प्रचुरता के कारण पूरी हो जाती है l वर्षा की अधिकता के कारण पर्वतों की गुफाओं कंदराओं में तापस ऋषि मुनि भी नगर ग्राम या तीर्थों पर आश्रमों में आकर विश्राम करते हैं, इनके विश्राम स्थल आश्रमों में जप तप हवन यज्ञ वेद अध्ययन के माध्यम से पर्यावरण की शुद्धि और राष्ट्र को आरोग्यता प्रदान करते हैं l यज्ञ हवन की सुगन्ध वायु का प्रवाह जिस दिशा में जहां जहां तक जाती हैं वहां वहां तक पर्यावरण की शुद्धि होने से आरोग्यता का प्रसार होता है। श्री रामचरित मानस में बनवासकाल खंड में भगवान श्रीराम ने सुग्रीव को आदेश दिया था कि वह वर्षा ऋतु के बाढ़,जल के उफान, पहाड़ों पर भूस्खलन, वर्षाकाल की विषाणुजन्य बीमारियों का समय व्यतीत होने के पश्चात शरद ऋतु प्रारम्भ होते ही जानकी जी खोज में जाएं l यह बात अलग है कि महाराज सुग्रीव एक राजस वृति का भक्त निकला जिसने आध्यात्मिक स्वाध्याय की जगह राजदरबार में नृत्य और गायन को स्थान दिया और उसे लक्ष्मणजी से प्रताडित भी होना पड़ा था।
अतीतकाल में जब हमारे बुजुर्ग श्री बद्रीनाथ केदारनाथ की यात्रा पर जाते थे तो सभी गांववासियों से मिल कर जाते थे कि शायद य़ह उनकी अंतिम मुलाकात हो, क्योंकि वर्षा ऋतु की यात्रा में विषमताएं होती थी, तब संसाधनों की भी कमी थी, तो हमारे पूर्वज अपने साथ कौन कौन से भोज्य पदार्थ लेकर जाते थे। अब हम इस चातुर्मास वर्षाकाल में भोजन के विज्ञान पर चर्चा करें कि इस कालखण्ड में जठराग्नि मन्द पड़ जाती है। इस मौसम में आंवला अचार शकराठा (देशी घी और शक्कर मिश्रित रोटी) और घेवर का सेवन किया जाता है। आंवला विटामिन सी का भंडार है तो अचार में समस्त पाचनतत्व मौजूद हैं, शक्कराठा को फंगस नहीं लगती और घेवर भी पौष्टिक है, जो रोग प्रतिरोधी क्षमता रखता है ऊर्जा प्रदान करता है शरीर में वात और पित और रक्तशर्करा को संतुलित रखता है, घेवर और अचार पाचन तंत्र को न केवल ठीक रखते है बल्कि य़ह विटामिन ए बी सी ई के के संग कैल्शियम ओमेगा तत्व हाई कैलोरी हैं जो एक दूसरे के पूरक भी हैं तथा प्रतिरोधक क्षमता देता हैं जो बेचैनी और जलाल्पता को भी नहीं होने देते।
हमारे उत्तरभारत की परंपराएं कुछ अलग अवश्य हैं लेकिन पूर्वी और दक्षिणी भारत में वहां के देश कालानुसार चातुर्मास नियमन का विधिवत पालन होता है, इस कालखण्ड में आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी पर्यंत शुभकार्य, मुहूर्त और विवाह आदि कृत्य भी सम्पादित नहीं किए जाते। काल भेद के चलते उपरोक्त वर्णित कारणों के चलते ऋषि वैज्ञानिकों ने स्वाध्याय करके जनहित में निर्णय लिए हैं लेकिन तब और अब के कालखण्ड में कलियुग आ गया है तो धीरे धीरे समस्त परंपराओं में अन्तर अवश्य आया है।धर्म और विज्ञान तब भी एक दूसरे के पूरक थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। हमें अपना ध्यान रखें, वाहन धीरे चलाएं और पौष्टिक खाना खाएं नियमन पालने की अधिक जरूरत हैं न अतीत के नियमन पर उंगली उठाने की… हम इस कालखण्ड में तीर्थों और ग्रामक्षेत्रों में तपस्या और स्वाध्याय कर रहे तपस्वियों, गुरु,साधुसंत और महापुरुषों के आश्रमों में जाकर उनको नमन करना चाहिए।
आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’।

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