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मैनेजमेंट के मखमली पर्दे के पीछे दम तोड़ती पत्रकारिता : डॉ. सत्यवान सौरभ

मैनेजमेंट के मखमली पर्दे के पीछे दम तोड़ती पत्रकारिता : डॉ. सत्यवान सौरभ।

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक।

“पीआर मैनेजमेंट के चंगुल में फंसा आज का कलमकार, मैनेजर जी रहे लग्जरी लाइफ,

हिसार : पत्रकार टूटी बाइक पर”आज की पत्रकारिता एक गहरे संकट से गुजर रही है, जहाँ कलमकार हाशिए पर हैं और पीआर मैनेजमेंट का बोलबाला है। पत्रकार, जो कभी सच की आवाज थे, अब टूटी बाइक पर सवार होकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि मैनेजरों की ज़िंदगी लग्जरी में डूबी है। मीडिया संस्थान अब व्यवसायिक लाभ के लिए सच्ची खबरों को नजरअंदाज कर रहे हैं। यह लेख उसी विडंबना को उजागर करता है- जहाँ पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं, बल्कि एक स्क्रिप्टेड तमाशा बनती जा रही है। क्या सच की जगह अब सिर्फ छवि का मैनेजमेंट रह गया है ?
आजकल के मीडिया और पत्रकारिता के परिवेश में जिस तरह से व्यावसायिकता, ब्रांडेड कंटेंट और पीआर मैनेजमेंट की छाया बढ़ी है, वह पत्रकारिता के लिए एक बड़ा संकट बनता जा रहा है। पहले जहाँ पत्रकारिता को समाज का प्रहरी माना जाता था, वहीं आज वह व्यापार, लाभ और स्वार्थ की ज़ुबान में तब्दील हो चुकी है। खासकर पीआर एजेंसियों और मीडिया प्रबंधन ने पत्रकारों को अपनी मुट्ठी में इस तरह से जकड़ लिया है कि उनका असली काम—सच सामने लाना—अब एक दम से परे हो गया है।
यह सच है कि पत्रकारों का जीवन कभी भी आसान नहीं था, लेकिन आज के दौर में उनकी स्थिति पहले से कहीं ज्यादा कठिन हो गई है। एक तरफ जहां पीआर मैनेजमेंट कंपनियां लाखों की फीस लेकर अपने ग्राहकों के लिए सुविधाएँ और ग्लैमरस इमेज तैयार करती हैं, वहीं दूसरी तरफ वही पत्रकार जो असल में सच्चाई को सामने लाने की जिम्मेदारी उठाते हैं, उन्हें अपनी टूटी फूटी बाइक पर सवार होकर दुनिया की कड़वी सच्चाई से निपटना पड़ता है। यही आज का मीडिया परिदृश्य है।

पीआर और मीडिया का व्यापारिकरण।
हमारे समाज में आज मीडिया की भूमिका, पत्रकारिता की नींव के बजाय एक व्यापार बन गई है। यह भी सही है कि मीडिया कभी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं रही है, लेकिन आज यह पूरी तरह से विज्ञापन, ब्रांडेड कंटेंट और राजनीतिक दवाब का शिकार हो चुकी है। पिछले कुछ वर्षों में, पीआर मैनेजमेंट ने मीडिया की धारा को इस कदर बदल दिया है कि अब पत्रकारिता में असल मुद्दे कम होते जा रहे हैं और साजिश, स्क्रिप्टेड खबरें और राजनीतिक एजेंडे ज्यादा होते हैं।
आजकल ज्यादातर मीडिया चैनल्स और अखबार पीआर एजेंसियों की मदद से खबरें चलाते हैं, जिसमें उनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ व्यापारिक फायदे होते हैं। क्या कभी हमें सोचना चाहिए कि जिस वक्त हम खबर देख रहे होते हैं, क्या वह खबर सही है या किसी के हित के लिए तैयार की गई है? यह सवाल आज पत्रकारिता के असली उद्देश्य पर गंभीर संकट खड़ा करता है। पत्रकारिता, जो कभी जनता का मंच हुआ करती थी, आज एक उत्पाद बन गई है, जिसे खरीदी और बेची जा सकती है।
पत्रकार की संघर्षमय जिंदगी।
यह स्थिति उस पत्रकार के लिए और भी कष्टप्रद होती है, जो सच्चाई के रास्ते पर चलता है। वह पत्रकार जो बिना किसी स्वार्थ के, जनता के हित में आवाज उठाता है, उसे आज भी उसी स्थिति में काम करना पड़ता है जैसे कभी पुराने समय में किया जाता था—टूटी बाइक, कम वेतन और सरकारी दवाब। यहां तक कि कई पत्रकारों को अपनी नौकरी की सुरक्षा के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।
एक समय था जब पत्रकारिता को समाज का चौथा स्तंभ माना जाता था, लेकिन आज के समय में यह स्तंभ हिल चुका है। पत्रकार अपनी टूटी हुई बाइक पर बैठे अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाहन कर रहा है, जबकि वही मीडिया मैनेजर, जिनका काम सिर्फ विज्ञापन और पीआर प्रबंधन है, वह शानदार लाइफ जी रहे हैं। लग्जरी कारों में घूमना, आलीशान दफ्तरों में बैठना और महंगे खाने-पीने की चीजों का सेवन करना – यह सब उनके लिए आम बात हो चुकी है। और इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि यह सब कुछ उसी समाज के पैसों से हो रहा है, जिसकी सच्चाई को उजागर करने का काम पत्रकारों ने किया है।
व्यावसायिक दबाव और पत्रकारिता का संकट।
एक और समस्या, जो आज के पत्रकारिता परिदृश्य में देखने को मिलती है, वह है – व्यावसायिक दबाव। मीडिया हाउसेस और चैनल्स को अब ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन और ब्रांडेड कंटेंट चाहिए होता है। इसके लिए खबरों को संपादित और तैयार किया जाता है, ताकि वे लोगों के दिलों में उत्तेजना पैदा करें और अधिक से अधिक व्यूज और विज्ञापन मिले।
अब पत्रकारिता की जगह चटपटी खबरें, पॉपुलर सेंसशन्स और सनसनी फैलाने वाली रिपोर्ट्स ने ले ली है। क्या कभी किसी चैनल या अखबार में आपको यह महसूस हुआ कि जो खबर आप पढ़ या देख रहे हैं, क्या वह सच है? क्या यह किसी एजेंडे के तहत तैयार की गई है? क्या यह पत्रकारिता का असली रूप है? अगर नहीं, तो हमें यह समझने की जरूरत है कि आज पत्रकारिता अपने असल कर्तव्य से कितनी भटक चुकी है।
प्रेस और समाज की जिम्मेदारी।
हमारे लोकतंत्र में पत्रकारिता का जो महत्वपूर्ण स्थान है, उसे बचाना हम सभी की जिम्मेदारी है। जिस तरह से अन्य संस्थाएं अपने कार्यों को लेकर जवाबदेह हैं, उसी तरह पत्रकारिता भी अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती। पत्रकारिता का उद्देश्य कभी भी पैसे कमाना नहीं था, बल्कि यह लोगों की आवाज बनना था। यह वही आवाज थी, जो सत्ता के दुरुपयोग, भेदभाव, भ्रष्टाचार और समाज में फैली असमानता को उजागर करती थी।
जब प्रेस को अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग करना ही नहीं मिलता, तो यह सवाल उठता है कि क्या हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं सुरक्षित हैं ? अगर मीडिया भी व्यापारिक दवाब में काम करेगा, तो कैसे हम उन सच्चाइयों तक पहुँच सकते हैं जो हमारे समाज के लिए जरूरी हैं ? आज जो पत्रकार अपनी टूटी बाइक पर चलकर इन सवालों का सामना कर रहा है, उसे किसी अच्छे वेतन या सम्मान की उम्मीद नहीं होती, बस उसे उम्मीद होती है कि वह अपनी आवाज सुना सके।
पत्रकारिता का भविष्य।
आज के पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य में, एक बड़ा सवाल खड़ा होता है—क्या हम कभी मीडिया की स्वतंत्रता को बहाल कर पाएंगे ? क्या वह दिन कभी आएगा जब पत्रकार फिर से समाज के वास्तविक मुद्दों पर बात करेंगे और उसे मीडिया में जगह मिलेगी ? क्या पीआर एजेंसियों का दबाव मीडिया पर कम होगा और पत्रकार फिर से अपनी कलम का सही इस्तेमाल करेंगे ?
यह सवाल सिर्फ मीडिया हाउसेस या पत्रकारों से नहीं, बल्कि समाज से भी है। समाज को यह समझना होगा कि सच्ची पत्रकारिता ही लोकतंत्र का असली प्रहरी है। हमें एक ऐसे माहौल की आवश्यकता है जहाँ पत्रकार अपनी भूमिका निभा सकें, बिना किसी व्यावसायिक या राजनीतिक दबाव के। अगर हम चाहते हैं कि पत्रकारिता फिर से अपनी असली भूमिका निभाए, तो हमें इसे पुनः आत्मनिर्भर और ईमानदार बनाना होगा।
अंत में, जब तक हम इस दिशा में कदम नहीं उठाएंगे, तब तक पत्रकार अपनी टूटी बाइक पर बैठकर संघर्ष करेंगे और पीआर मैनेजर लग्जरी लाइफ जीते रहेंगे। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम पत्रकारिता की सच्चाई को बचाएं, ताकि आने वाली पीढ़ियां इसे सही रूप में समझ सकें।

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